Thursday, November 24, 2011

पी एम अंकल, क्या मेरे पापा पेट्रोल वाली गाड़ी नही चला सकते?


आदरणीय प्रधानमंत्री जी! मैं छह साल का छोटा सा बच्चा हूँ. आशा करता हूँ कि यदि मैं आपको पी एम अंकल कहकर संबोधित करूँगा तो आपको अजीब बिलकुल नही लगेगा. चाचा नही पुकारूँगा. क्योंकि बहुत पहले बच्चों ने एक व्यक्ति को ग़लती से चाचा कह दिया था और अब तक उसके परिवार वाले उस रिश्ते को भुना रहे हैं. अंकल ठीक है - इससे प्रेम भी बना रहता है और थोड़ी दूरी भी कायम रहती है. कभी कभी रिश्तों का अँग्रेज़ीकरण सही प्रतीत होता है.

हाँ तो पी एम अंकल, मेरे पापा कहते है आप देश के राजा हैं और हम सब आपकी प्रजा. उनका कहना है कि राजा का मुख्य कर्तव्य होता है - प्रजा के हितों का ध्यान रखना. परंतु अंकल, क्या आपको ऐसा नही लगता कि आप हमारे हितों को नज़रअंदाज़ कर रहे हैं?

देखिए न, पिछले कुछ वर्षों मे आपने पेट्रोल के दाम मे कितनी बढ़ोतरी कर दी. उसी तारतम्य मे दैनिक उपयोग की अन्य वस्तुओं के दाम भी बढ़ गए. लेकिन लोगों ने जीना नही छोड़ा. हम भी जी रहे हैं. अंकल, हम समाज के उस वर्ग का प्रतिनिधित्व करते हैं जिसे मध्य और उच्च वर्ग हेय की दृष्टि से देखते हैं. मेरे पापा कहते हैं हम समाज की नज़र मे कीड़े मकोडे हैं. खुशियाँ हमारे घर को देखकर मुँह बिचकातीं हैं. दुख और परेशानियों से हमारा गहरा नाता है. पेट्रोल वर्तमान काल का तरल सोना है और सोना ग़रीबों को स्वप्न मे भी नही दिखता.

परंतु मैं इन बड़ी बड़ी बातों से कोई वास्ता नही रखना चाहता. मैं अपना बचपन जीना चाहता हूँ. इसलिए, इस दीवाली मैने हठ करके पापा को एक दुपहिया वाहन खरीदने के लिए मजबूर कर ही दिया. लोग इस वाहन को मोपेड कहते हैं  - अर्थात छोटी गाड़ी. पापा ने बताया कि पूरे 24 हज़ार रुपए की है हमारी गाड़ी.

मुझे नही पता रुपयों का ऐसा क्या महत्व है कि उसे खर्च करते समय लोगों के चेहरों पर शिकन उभर आती है. पापा आम जनजीवन का हिस्सा ही तो हैं. शिकन उनके चेहरे पर भी थी. लेकिन मुझे तो केवल इस बात की खुशी थी कि हमारे घर एक गाड़ी आ ही गई.

पापा पहले साइकिल चलाते थे. वे कभी गाड़ी खरीदने की हिम्मत नही जुटा पाए. कहते थे पूरी तनख़्वाह तो पेट्रोल मे उड़ जाएगी, फिर खाएँगे क्या. मगर मेरी ज़िद के आगे उनकी एक न चली. आख़िरकार घर मे गाड़ी आ ही गई. परंतु उसमे बैठने का सौभाग्य मुझे अब तक केवल दो-तीन बार ही प्राप्त हुआ  है.

पापा कहते हैं विशेष अवसरों पर ही गाड़ी का प्रयोग करेंगे. रोज़ रोज़ पेट्रोल का खर्चा कहाँ उठा पाएँगे. अभी तो इसकी किश्तें चुकानी है. यही बहुत बड़ा सरदर्द है. हाथी है ये हाथी. इसे तेल पिलाते पिलाते तो हमारा ही तेल निकल जाएगा. साइकिल अब भी ठीक है. टायरों मे हवा डालो और चल पड़ो सरपट पैडील मारते. दूर-दराज जाना हो तो बस-ट्रेन की सुविधा तो है ही.

मुझे तो पापा की बातें अच्छी नही लगतीं. अब ऐसा भी क्या. जब घर मे गाड़ी आ ही गई है तो उसका थोड़ा तो इस्तेमाल होना ही चाहिए न? अगर कहीं नही जाना है तो मुझे थोड़ा घुमा ही दो. मन बहल जाएगा.

लेकिन मैं जब भी पापा को गाड़ी मे घुमाने के लिए कहता हूँ, वो झिड़क देते हैं. मम्मी मुझे समझाने का व्यर्थ प्रयत्न करती है और सरकार को कोसती है. कहती है मुई सरकार भी ग़ज़ब है, पेट्रोल के दाम सीधे सीधे दस-बीस रुपए क्यों नही घटा देती. अरे ग़रीब की दुआ मिलेगी. पापा कहते हैं मम्मी बड़ी भोली है, उसे क्या पता कि सरकार की नज़र ग़रीब की दुआ पर नही बल्कि उसकी खुशियों पर है.

एक दिन पापा बहुत खुश थे. आफ़िस से घर आते ही मुझे गाड़ी मे घुमाने ले गए. जब मैने उनकी खुशी का कारण पूछा तो उन्होने बताया कि सरकार ने पेट्रोल के दाम दो रुपए घटा दिया है. मैं भी खुश हुआ. मैने कहा - पापा सरकार कितनी अच्छी है न, हमारा कितना ख्याल रखती है. पापा मुस्कुराए. उन्होने कहा बेटा यदि सरकार हमारा ध्यान रखती तो क्या हम इस हालत मे रहते. दरअसल सरकार सिर्फ़ अपना ख्याल रखती है. जनता की ज़रूरतों और परेशानियों से उसे कोई सरोकार नही है.

मुझे बड़ा आश्चर्य हुआ. मैने पूछा - पापा फिर हम बुरे लोगों को सरकार चलाने का मौका क्यों देते हैं? पापा चौंके. उन्हें विश्वास नही हुआ कि मेरे जैसा छोटा बच्चा भी ज्वलंत प्रश्न कर सकता है. उन्होने कहा इस प्रश्न का जवाब अभी तक कोई नही दे पाया है.  मैने कहा आप भी तो हमारे घर के राजा हैं. हमे पालते हैं. आपने तो कभी हमारा अहित नही सोचा. जब सरकार निकम्मी है, पी एम नकारा है तो आप ही बन जाओ न देश के राजा. मुझे यकीन है आप सभी को खुश रखोगे. पापा की आँखें छलछला गईं. उन्होने कहा बेटा देश चलाना बड़ी बात है, घर तो कोई भी चला सकता है.

मैने कहा - पापा कोई बड़ा फ़र्क नही है. यदि देश को घर जैसे चलाया जाए तो क्या चारों तरफ खुशहाली और शांति नही होगी? केवल स्वार्थ ही तो छोड़ना है. आख़िर स्वार्थी होने की ज़रूरत ही क्या है? आप ही तो कहते हैं कि देश चलाने के लिए तनख़्वाह भी मिलती है और सुविधाएँ भी. फिर काले धन जमा करने की क्या आवश्यकता है. धन बटोरकर जेल मे रहने से क्या फ़ायदा. पापा भौंचक्क रह गए. पूछे - बेटा तुम क्या टेलीविज़न मे समाचार भी देखने लग गए? इनमें समय नष्ट ना करो, पढ़ो और मनोरंजन के लिए कार्टून चैनल देखो, ज्ञान के लिए डिस्कवरी.

मैं चुप रहा. लेकिन पी एम अंकल, आपसे बोलूँगा. आप तो महाज्ञानी हैं, बड़े अर्थशास्त्री हैं, फिर आपसे ये कैसा अनर्थ हो रहा है. दाल-चावल, सब्जी-भाजी, तेल-पानी, साबुन-सोडा सब महँगा हो गया. अरे, जिस दो रुपए के बिस्किट को मैं खाया करता था वो भी अब ढाई का हो गया. आप फिर भी कहते हैं कि देश उन्नति कर रहा है. ग़रीब पिसे जा रहा है, मर रहा है, लेकिन तरक्की जारी है. समझ नही आता कि आप बधाई के पात्र हैं या बुराई के.

पी एम अंकल, आपको नही लगता कि न तो आपकी डिग्रियाँ किसी काम की हैं और न ही आपका अनुभव. वरना क्या वजह है कि आप महँगाई कम करने का एक छोटा सा फार्मूला भी ईजाद नही कर पाए? आपने उन वस्तुओं के दाम बढ़ा दिए जो जीवन के लिए आवश्यक हैं. दाम बढ़ाना ही था तो विलासिता की वस्तुओं का दाम बढ़ाते. परंतु आपने रीढ़ भी तोड़ी तो मध्यम और निम्न वर्ग के लोगों की जो अपने वाहन मे एक लीटर पेट्रोल भराने से पहले अपनी फटी हुई पर्स मे रखे पैसों को तीन-चार बार गिनते हैं. मेरे पापा के पास न तो पर्स है और न ही इतना पैसा. तो क्या मेरे पापा पेट्रोल वाली गाड़ी नही चला सकते? और जो गाड़ी हमने खरीदी है उसका क्या? अगर पेट्रोल के दाम अब कभी कम नही होंगे तो पी एम अंकल हमारी गाड़ी आप ही रख लो. जब आप पी एम नही रहोगे तो इसे मज़े से चला तो सकोगे.

Tuesday, November 1, 2011

किसकी बढ़ी आबादी और कौन हुआ बर्बाद



चलिए मानव आबादी ने सात अरब का आँकड़ा भी छू लिया. परंतु भारत जैसे  देश मे आबादी का बढ़ना कोई चमत्कार तो है नही. जिस देश मे जन्म-मृत्यु, आत्मा-परमात्मा जैसे विषयों पर लोग गली-मोहल्ले-चौक-चौबारों मे बैठकर गंभीर चर्चाएँ करते हैं, वहाँ आबादी जैसे साधारण विषय की क्या बिसात? यह सवा अरब की आबादी वाला देश है. यहाँ अब भी अस्सी फीसदी लोग पत्नी को बच्चा पैदा करने की मशीन समझते हैं और बच्चों को भगवान की देन. भई वोट दे दिया, सरकार बना दी, अब नेता दिल्ली मे बैठकर फोड़ें अपना माथा आबादी के बारे मे सोच सोच कर. क्यो रे लालू, सही कहा ना?

दरअसल, लालू जैसे लोग बढ़ी हुई आबादी को 'भरे-पुरे' परिवार की संज्ञा देते हैं. ग़रीब जन लालुओं को मानक मानते हैं. वो कहते हैं – “अरे जब ललुआ नौ-नौ बच्चे पैदा कर सकता है, तो ग़रीब आदमी तीन-चार नही कर सकता का?”

पढ़ा-लिखा वर्ग ग़रीबों मे जागरूकता लाने से पहले ही हार मान लेता है. आधी ज़िंदगी किताबों मे सर खपाए हुए लोग कहते हैं - "अरे इन्हें क्या सिख़ाओगे, ये तो निपट गँवार हैं. भैया, इनको सरकार नही समझा सकी, हम क्या चीज़ हैं? और फिर इन्होने तो आबादी बढ़ाने का कापीराइट किया हुआ है. बढ़ाने दो सालों को आबादी, और ये कर ही क्या सकते हैं. ये सौ रुपये की दैनिक मज़दूरी मे साठ की तो दारू गटक जाते हैं और चालीस की परिवार सहित खाते हैं. छत्तिसगढ़ जैसे प्रदेश मे तो ग़रीब पूरे सौ की दारू धकेल लेता है, क्योंकि खाना खिलाने का ठेका रमन सिंह की सरकार ने लिया हुआ है. ऐसी स्थिति मे इनके पास काम ही क्या बचता है - सिवाय परिवार बढ़ाने का. इनपर हम क्यों अपना समय खराब करें. हमारे पास बहुत काम है. अभी और कई किताबें चाटनी है. फिर अपनी खुद की किताब लिखेंगे - इन्हीं भिखमंगों पर."

रह गई सरकार. एक सरकार देश चला रही है और कई प्रदेश. परंतु कोई भी सरकार आबादी पर लगाम कसने की ज़िम्मेदारी नही लेना चाहती. कांग्रेस तो कतई नही. सत्तर के दशक के उत्तरार्ध मे संजय गाँधी ने दूध जलाया था, कांग्रेस अभी तक छाछ फूँक रही है. आगे भी फूंकेगी. अन्य राजनैतिक दल कांग्रेस से उम्र मे आधी हैं, इसलिए उसके ही अनुभवों को मापदंड मानती हैं.   

तो क्या यूँ ही बच्चे पैदा होते रहेंगे और सड़कों, रेलवे स्टेशनों व अनाथ आश्रमों मे अपना बचपन खोते रहेंगे? ऐसा होना तो नही चाहिए. केंद्र और प्रदेश सरकारों के पास योजनाएँ हैं. वृहद योजनाएँ  - जिन्हें सफलतापूर्वक लागू करने पर संपूर्ण सामाजिक ढाँचे मे परिवर्तन लाया जा सकता है. साक्षरता और विकास जागरूकता के पहिए बन तिरस्कृत वर्ग मे क्रांति ला सकते हैं. ज़रूरत है केवल सार्थक पहल की.  

लेकिन मंत्री और संत्री योजनाओं से ज़्यादा आबंटित राशियों मे दिलचस्पी लेते हैं. इन्हें अपने घर की आबादी की अधिक चिंता है,  देश जाए भाड़ मे.  ये जनता के कर से अपना घर चला रहे हैं और सरकारी ख़ज़ाना लूटकर अपना विदेशी बॅंक बॅलेन्स बढ़ा रहे हैं. ये अपने बच्चों की पढ़ाई मे लाखों फूँक देते हैं और सरकारी स्कूलों मे पढ़ने वाले बच्चों के विकास मे खर्च होने वाले करोड़ों लूट लेते हैं.

अगर ये अपने इरादों मे थोड़ा चूक जाएँ तो निम्न वर्ग की पूरी की पूरी एक पीढ़ी ज्ञान पी जाएगी और फिर बच्चों को जानवरों जैसा जीवन देने के लिए इस दुनिया मे लाने के बजाए अपनी आर्थिक परिस्थिति को ध्यान रखते हुए ही अपना परिवारिक दायरा बढ़ाएगी.