Friday, September 18, 2015

हंसा तो मोती चुगे: भाषाई राजनीति से उबरना ज़रूरी है

September 18, 2015


महाराष्ट्र सरकार का गैर-मराठी भाषी ऑटो रिक्शा वालों के लिए नया फरमान हास्यास्पद है। सरकार उन्हें मराठी सीखने के लिए बाध्य कर रही है। अरे, सीखना ही है तो वे कुछ और सीखेंगे जिससे उनकी आर्थिक स्थिति सुदृढ़ हो, मराठी ही क्यों? या फिर सरकार ने मराठी भाषा को नरेन्द्र मोदी के कौशल उन्नयन कार्यक्रम मे शामिल कर लिया है?

अजीब मज़ाक चल रहा है। अब सरकारें हर कदम राजनैतिक मकसद के लिए ही लेने लगी हैं। विश्लेषक कहते हैं यह शिवसेना का नया पैंतरा है अपनी जड़ें मजबूत करने का। 21वीं सदी का भारत अब तक क्षेत्रवाद की गंदी राजनीति से उबर नही पाया है। महाराष्ट्र सरकार का यह फरमान आज़ाद भारत की खोखली एकता का नायाब नमूना प्रतीत होता है।

दरअसल यह क्षेत्रवाद ही था जिसने भारतवर्ष को सैकड़ों वर्षों तक खंडित रखा, विभाजित रखा और इसका लाभ मुगल और अँग्रेज़ों ने भरपूर उठाया। दुख की बात है कि अब भी भाषाई दीवारें खड़ी कर क्षेत्रवादी कूपमंडूक राजनैतिक दल अपना उल्लू सीधा कर रहे हैं। यह सिलसिला अब समाप्त होना चाहिए।

हिन्दी भाषा का ज्ञान पर्याप्त है आजीविका चलाने के लिए। परंतु यह आश्चर्य की बात है कि देश की मातृभाषा होने के बावजूद हिन्दी अनेक प्रांतों मे अपने अस्तित्व को बनाए रखने के लिए संघर्ष कर रही है। यह वर्षों से हो रहा है। यह कोई नई बात नही है। और हम सदैव गर्व से कहते रहे हैं - हिन्दी हैं हम, वतन है हिन्दुस्तान हमारा। वाह! और हम मे शामिल कौन-कौन हैं? वे सभी राजनैतिक दल जो साल मे एक दिन हिन्दी दिवस धूमधाम से मनाते हैं परंतु बाकी 364 दिन हिन्दी की व्यापक स्वीकार्यता के लिए कुछ भी नही करते।

भाषा केवल एक-दूसरे को बेहतर तरीके से समझने का माध्यम है। इसे व्यर्थ क्षेत्र, धर्म व वर्ग की अस्मिता से जोड़कर राजनीतिक रंग देना केवल फूहड़ मानसिकता का परिचायक है।

हंसा तो मोती चुगे: बिहार मे विकास से ज़्यादा नीतीश को तरजीह क्यों?

Raipur, July 27, 2015


नरेंद्र मोदी और अमित शाह ने दिल्ली चुनाव मे विकास के बजाए अरविंद केजरीवाल की बातें की और परिणाम भाजपा के विपरीत गया। अब बिहार मे भी मोदी कुछ इसी तरह का सुर अपना रहे हैं। नीतीश कुमार की आलोचना करके बिहार की जनता के हृदय मे स्थान बनाना कठिन कार्य है।

नीतीश कितने भी अवसरवादी राजनेता हों, परंतु उनके द्वारा बिहार मे किए गए कार्यों को अनदेखा नही किया जा सकता। नीतीश कोई सोनिया अथवा राहुल नही हैं जिनके बारे मे जनता मज़ाक बर्दाश्त करेगी। बिहार की जनता को चाहिए विकल्प और वो भी इतना मजबूत जो नीतीश को टक्कर दे सके।

भाजपा मे नेताओं की भरमार है। बिहार से तो एक से बढ़कर एक धुरंधर नेता हैं। समय चयन का है। मोदी को चेहरा बनाकर विधान सभा चुनाव लड़ना बचकाना है। दिल्ली की तर्ज पर ऐन वक्त मे किरण बेदी जैसे मुख्यमंत्री प्रत्याशी को उतरना भी ठीक नही है। जनता पचा नही पाएगी।

अनंत कुमार को बिहार का चुनावी प्रभार दिया जाना भी समझ से परे है। दिल्ली की हार के बाद अमित शाह के पास अवसर था कि वे बिहार मे अपनी प्रतिभा दिखाते और सिद्ध करते कि उनकी उत्तर प्रदेश की रणनीति कोई हवा-हवाई सोच का परिणाम नही थी वरन एक ठोस व धरातल मे किए गये कार्य का प्रतिफल थी।

एक सोच यह उभरती है कि अमित शाह राष्ट्रीय अध्यक्ष होकर प्रदेश चुनाव की कमान क्यों संभालेंगे? दूसरी सोच यह है कि जब चुनौती छोटी अथवा बड़ी नही होती तो अमित शाह क्या इस बात से डर रहे हैं क़ि बिहार के परिणाम यदि दिल्ली जैसे आए तो दल मे अन्य नेता उनसे इस्तीफ़ा माँगना प्रारंभ कर देंगे?

कारण जो भी हो, मोदी और शाह की जोड़ी बिहार मे तभी सफलता के परचम लहराएगी जब वे दोनों अपनी-अपनी प्रतिभा का भरपूर दोहन करेंगे और जीत के लिए पूरी ताक़त झोंक देंगे..