Wednesday, October 24, 2012

धन का रोग परमात्मा से बड़ा


(प्रिय मित्रों, मेरा यह लेख आधुनिक युग के बकवाद की श्रेणी का गरिष्ठ प्रस्तुतिकरण है, उम्मीद है आप सब इस वार्तालाप मे उलझ कर रह जाएँगे... ..योगेश मिश्रा)


रमेश जी खानदानी भ्रष्टाचारी हैं। उनकी घ्राण शक्ति श्वानों जैसी है। इस शक्ति का उपयोग वे धन का स्त्रोत ढूँढने मे करते हैं। सरकारी मुलाज़िम हैं व उच्च पद पर आसीन। उनके आसपास केवल भ्रष्टाचारियों का ही जमावड़ा रहता है। ग़रीबों को वे हिकारत भरी नज़रों से देखते हैं। कहते हैं - ये ग़रीब इसलिए हैं क्योंकि ये कुछ करना नही चाहते, वरना हमारे देश मे तो सोना बरस रहा है, जो लूट सकते हैं वो लूट रहे हैं, ये लूट भी नही पा रहे, बड़े अभागे हैं। उनके विचार से लुटना मूर्खता है और लूटना समझदारी।

एक दिन सुबह सुबह मुझसे टकरा गए, बोले - यार, मन खट्टा हो जाता है तुमसे मिलकर। नीरस जिंदगी है तुम्हारी। दो-चार हज़ार रुपयों मे पूरा महीना निकाल लेते हो। फिर भी स्वयं को शान से लेखक, कवि और पत्रकार कहते हो। बातें बड़ी बड़ी, लेकिन जेबें फटी हुईं, बड़े क़लमकार बने फिरते हो। छोड़ो यह सब नौटंकीमेरे साथ जुड़ जाओ, मैं तुम्हारी जिंदगी बना दूँगा।

मैने कहा - रमेश जी, मैं ठीक हूँ, मुझे आज भी थाली मे रोटी ही पसंद है, धन चबाना और पचाना मेरे बस का रोग नही। रमेश जी बोले - अरे मूरख, आज धन कमा, कल तेरी आने वाली पीढ़ियाँ खाएँगी। मैने कहा - रमेश जी, आपमे और मुझमे केवल एक फ़र्क है - आप धन खोजते हैं, मैं ज्ञान।

उन्होने पूछा - क्या मतलबमैने कहा -  आपके हाथ-पैर कब्र मे लटक रहे हैं, यमराज आपके चक्कर काट रहा है, बीमारियों ने आपके शरीर को खोखला कर दिया है, डाक्टरों ने आपकी जीभ का स्वाद छीन लिया है, रुपये-पैसे हीरे-जवाहरात आपके पास भरे पड़े हैं, लेकिन खाते क्या हैं - खिचड़ी और लोगों से कहते हैं 'सादा जीवन उच्च विचार'। जब कोई आपसे धर्म की बात करता है तो चंदा के पचास रुपए देकर अपना पिंड छुड़ा लेते हैं। आपके अनुसार भगवान बुढ़ापे मे याद की जाने वाली चीज़ है। क्यों? जिसने जीवन दिया, उसे मृत्यु के समय याद करके उसपर उपकार करना चाहते हैं? भई वाह! आप धोखा भी दे रहे हैं तो स्वयं को?

रमेश जी ने कहा - बातों से पेट नही भरता दोस्त, ज़रूरत के समय केवल धन ही काम आता है। नाते-रिश्तेदार तुम्हारे खोखले समाज के पर्याय हैं। मानवता, प्रेम, विश्वास जैसी बातें भावनाओं के गहने बनकर रह गए हैं जो पल भर मे बह जाते हैं।

मैने कहा - रमेश जी, धन की महत्ता को मैं नकार नही सकता। परंतु जब तक इसका सदुपयोग नही होगा, यह केवल सांसारिक वासनाओं की तृप्ति का एक साधन मात्र कहलाएगा । धन आपके कृत्रिम जीवन को भव्य बना सकता है, परंतु आपकी आंतरिक चेतना को जगा नही सकता।

रमेश जी ने कहा - धनी दानी भी होते हैं, धर्मात्मा भी, यदि ऐसा ना होता तो देश के बड़े बड़े धर्मस्थल कभी के नष्ट हो चुके होते।

मैने कहा - वर्तमान काल मे धर्मस्थल व्यापार का केंद्र बनकर रह गए हैं। लोग परमात्मा को पदार्थ का लोभ देते हैं और लाभ-हानि मे अपना साझेदार बनाते हैं। तथाकथित धनी लोग जितना दान करते हैं उससे अधिक दिखावा। धर्म की आड़ मे आडंबर हो रहा है। आजकल के धर्मात्माओं का लक्ष्य परमात्मा को प्रसन्न करना नही अपितु आम जनता को अपने छल से अभिभूत करना है।

रमेश जी बोले - लेकिन धार्मिक व सामाजिक कार्य करने के उद्देश्य से स्थापित ट्रस्ट (न्यास) तो आम आदमी को लाभान्वित कर रहे हैं नामैने कहा - रमेश जी, लोगों का अब ट्रस्ट (न्यास) पर से भी ट्रस्ट (भरोसा) उठ गया है। दरअसल नेताओं व व्यापारियों के लिए ट्रस्ट वॉशिंग मशीन की तरह होता है, उसमे अपने काले धन डालो, थोड़ा धार्मिक-सामाजिक भावनाओं का पावडर छिड़को, धवल-उज्ज्वल धन बाहर आएगा। पहले साधारण पाप गंगा धोती थी, अब पाप हाइ-टेक हो गया, और गंगा की टेक्नालजी पुरानी।

उन्होने कहा - इतने बड़े दार्शनिक हो तो बाबा बन जाओ, कम-से-कम तुम्हारा आगे का जीवन सुखपूर्वक बीतेगा। बाबाओं का जमाना है, अब तो जवान बाबा ही ज़्यादा दिखते हैं, वृद्ध बाबा धूमिल होते जा रहे हैं।  तुम्हारी मूछों की लंबाई  भी पर्याप्त है, बस आवश्यकता है दाढ़ी की। फिर ऐसे ही बकबक करना और तुम्हारी दुकान चल पड़ेगी।

मैने कहा - यही तो मैं कह रहा हूँ, आपकी खोज केवल धन तक ही सीमित है।  मार्ग कोई भी हो - संसारिक या अध्यात्मिक, आप जैसे लोग धन की संभावना तलाश ही लेते हैं। साधु बनना आसान है, साधु का जीवन निर्वाह करना कठिन। भारतवर्ष मे सदियों से लोग अध्यात्मिक मार्ग अपनाने के लिए भौतिक जीवन को त्यागते रहे हैं, परंतु उनमें से अधिकांशतः अपने पीछे छूटे संसार को मुड़-मुड़ कर देखते रहे, पदार्थ का मोह छूट न पायाइसलिए वे कभी वैराग्य के परमानंद को अनुभूत नही कर पाए। आप मुझे ऐसे ही साधु बनने के लिए प्रेरित कर रहे हैं। यह संभव नही है। ना तो मैं साधु शब्द का अपमान कर सकता हूँ और ना ही आपकी भाँति भ्रष्टाचार से अर्जित धन का विषपान। रमेश जी, आपको धन का रोग लगा है। आपके लिए जीवन आय्याशी है, मृत्यु भय व परमात्मा गौण। आप वर्तमान के कर्मज्ञ भले  और  मैं कर्महीन।

Wednesday, September 26, 2012

विकास ज़रूरी है, जनता जाए भाड़ मे


(यह व्यंग्य मैने विश्व के सबसे काबिल अर्थशास्त्री और भारत के प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह पर लिखा है, उम्मीद है वे मेरी बातों का अवश्य बुरा मानेंगे..)


प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को अचानक विकास शब्द से लगाव हो गया है। आठ साल तक उनके मंत्रीगण देश की लुटिया डुबोते रहे परंतु वे खामोश रहे। बड़े बड़े घोटाले हुए लेकिन उनके चेहरे पर शिकन तक नही आई। जब जनता को लगने लगा क़ि - 'अरे ये तो काफ़ी सालों से कोमा मे हैं और शायद इसलिए मैडम पर्दे के पीछे से सरकार चला रही हैं', तभी वे अचानक बोल पड़े - देश का बंटाधर मैं स्वयं करूँगा। यह शुभ कार्य करने के लिए उन्होने विकास का नारा दिया।  

क्या मतलब? अरे भई, जीना, खाना, तेल, पानी, स्वास्थ्य, शिक्षा, सब महँगी कर दो और बोलो इससे देश का विकास होगा।  वैसे भी जनता ठहरी बेज़ुबान जानवर और विपक्षी दल ठहरे मौक़ापरस्त, तो विरोध का स्वरूप एक दिन के देश बंद से अधिक क्या होगा? पुनः: शांति छा जाएगी  और फिर करो नंगा नाच।

दरअसल मनमोहन सिंह संवेदनशील प्रधानमंत्री हैं। उसकी संवेदनशीलता अंतरराष्ट्रीय स्तर की है। इसलिए आतंकवाद, नक्सलवाद, महँगाई, किसानों की आत्महत्या, ग़रीबी जैसी समस्याओं से उनकी भावनाएँ आहत नही होतीं।  हाँ, यदि अमेरिका की टाइम पत्रिका अथवा वॉशिंग्टन पोस्ट अख़बार उन्हें कमजोर और उपलब्धि-विहीन प्रधानमंत्री करार देती हैं तो उन्हें अंतरराष्ट्रीय जगत मे अपनी कृत्रिम छवि खराब होने की चिंता सताने लगती है।  अजीब आदमी हैं - बुढ़ापा घर मे काटना है और शर्म उन बाहर वालों से आती है जिनसे रूबरू होने की संभावना मौत तक नही है।

करियर ढलान पर है, सोचा देशवासियों का भविष्य भी चौपट कर दिया जाए। इसलिए घुमा दी बड़ी बड़ी बातों की चक्करघिन्नी, विकास दर को नये क्षितिज पर पहुँचाने की ठान ली और डीजल एवम् गैस के दामों मे बढ़ोतरी कर दी। सेंसेक्स और निफ्टी उछलने लगे और आम जनता का दिल बैठ गया। अर्थशास्त्री महोदय मुस्कुराने लगे, कहने लगे ये तो अभी ट्रेलर है, पिक्चर तो अभी बाकी है मेरे दोस्त।

लोग सकपकाए हुए हैं, जाने ये आदमी और क्या क्या सितम ढाएगा, पूरे देश को तो इसने प्रयोगशाला बना दिया है, अब आगे क्या?  दरअसल आगे कुछ नही है, सिवाय तकलीफ़ के। मनमोहन सरकार ने अपने राज मे नया पहाड़ बनाया -  माउंट महँगाई जो माउंट एवरेस्ट की चोटी को पकड़ पकड़ कर ऐंठती रहती है।  जनता के लिए यह बात प्रतीकात्मक है - यदि वह भी लोकतंत्र मे स्वयं को सरकार से बड़ी समझेगी तो सरकार उसे मरोड़ कर रख देगी।

और विकास? वह तो होकर रहेगा, विकसित नेता होंगे और जनता कुपोषित। यह तो सदा का दस्तूर रहा है। गाँवों मे सड़क, पानी, बिजली पहुँचाना है - बिल्कुल पहुँचेगा। कब? पता नही। हर नागरिक को शिक्षित करना है - कर देंगे। कैसे? आँकड़ों मे।  कौन बेवकूफ़ दूर-दराज स्थानों मे यह जानने के लिए मरने जाएगा कि सरकार सच बोल रही है या झूठ। हर गाँव मे स्वास्थ्य केंद्र होना चाहिए, भले चिकित्सक हो या ना हो। मध्यान्ह भोजन कौन खा रहा है, पता नही, हाँ पकाने वाले स्कूल के बच्चे हैं। आम आदमी मरते दम तक बुनियादी सुविधाओं के लिए तरसते हैं, बड़े बड़े शापिंग मॉल को हतप्रभ चने फाँकते हुए निहारते हैं और कहते हैं - वाकई देश तरक्की कर रहा है।

मनमोहन सरकार ने दाल, चावल, गेहूँ, शक्कर, सब्जी को सोना बना दिया है, एक ग्राम ख़रीदो और थाली मे सजाकर बीस मिनट मन भरकर देखो, पेट अपने आप भर जाएगा।  लोग यदि शिकायत करते हैं तो सरकार कहती है - ग़लत बात, एक तो हम तुम भिखारियों का भविष्य सँवारने का प्रयोजन कर रहे हैं और तुम हो कि हमे ही आँखें तरेर रहे हो, चुप रहो और तमाशा देखो, एक दिन हम भारत को अमरीका बना देंगे। जनता आक्रोशित है, कहती है विकास गया तेल लेने, इस मूर्ख सरकार के मूर्खतापूर्ण निर्णयों से भारत अमरीका तो नही वरन अफ़्रीका ज़रूर बन जाएगा।  मनमोहन सिंह मुस्कुराते हैं, कहते हैं - अरे पागलों, अफ्रीका भी तो विदेश है, यदि दो कौड़ी का हिन्दी बोलने वाला भारत अँग्रेज़ी बोलने वाले अफ्रीकी राष्ट्र की तरह बन जाएगा तो क्या यह तरक्की नही है।

सत्य वचन मनमोहन सिंह जी। प्रयोग चलने दो - जनता बचे ना बचे, देश ज़रूर बच जाएगा। फिर बुला लेना विदेशियों को यहाँ बसाने के लिए। पूरब मे रखा क्या है, अब सूर्योदय पश्चिम से होगा, धर्म और तंत्र का ज्ञान पश्चिम से आएगा, भारत पुनः पुनः बसेगा, पर लोग कोई और होंगे, फिर यह वाकई विदेश बन जाएगा..  

Sunday, September 2, 2012

नेता सब खाते हैं, कोयला नया पकवान है



नेताओं के भोजन मे कोयला नया पकवान है। इसका स्वाद मीठा है या नमकीन यह तो इसे खाने वाले नेता ही बता सकते हैंलेकिन इतना कयास अवश्य लगाया जा सकता है कि यह पकवान अत्यंत ही पौष्टिक होगा। कैग (नियंत्रक-महालेखापरीक्षक - Comptroller and Auditor General – CAG) के द्वारा पेश किया गया 1.86 लाख करोड़ रुपए का कोयला घोटाले का प्रतिवेदन इस पदार्थ की पौष्टिकता पर मुहर लगाता है। दरअसल नेता सब खाते हैं - जीव, निर्जीव, दृश्य, अदृश्य, जो मिल जाए। इनके खाने की क्षमता असीमित होती है। ये जो भी खाते हैं, तुरंत पचा लेते हैं।

हालाँकि प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह इस बात से इत्तेफ़ाक नही रखते। वे स्वयं को सुधारवादी मानते हैं, नेता नही। उनका कहना है कि कोयला उनकी प्लेट मे राज्यों ने डाल दिया, लेकिन उन्होने उसे कभी खाया नही। कैग कहता है - सब नेता यही कहते हैं। जब ग़लती पकड़ मे आ जाती है तो लोग दार्शनिक बन जाते हैं।

कांग्रेस कहती है कि कोयले का असली रंग तो छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री रमन सिंह पर चढ़ा है और इस बात की पुष्टि वहाँ के कैग ने अपने प्रतिवेदन मे किया है। रमन सिंह कहते हैं - कैग झूठा है, मैं तो पिछले आठ सालों से उपवास कर रहा हूँ। कांग्रेस कहती है - आपके फलाहर मे कोयला शामिल था।

65 साल पहले देश स्वतंत्र हुआ - केवल एक दिन के लिए! क्योंकि  नेताओं ने दूसरे दिन इसे फिर परतंत्र बना दिया। नए भारत के निर्माण के लिए विकास का नारा दिया गया। सर्वप्रथम बुनियादी सुविधा -  जैसे सड़क, पानी, बिजली, स्वास्थ्य एवम् शिक्षा के व्यापक विस्तार की आवश्यकता थी। इतने बरसों मे इन सुविधाओं को देश के कोने-कोने मे पहुँच जाना था, परंतु नेताओं ने अभाव बनाए रखा और अपनी राजनैतिक रोटियाँ सेंकते रहे। नेताओं ने देश की नींव को ही चबा डाला है, विकास क्या खाक होगा।

 राजनीति सदा से सत्ता प्राप्ति के लिए की जाती रही है। सत्ता मे आते ही नेताओं के सामने विविध पकवानों के ढेर लग जाते हैं। उनका केवल एक ही काम होता है - पाँच साल के लिए मुँह को खुला रखना, खिलाने का काम हज़ारों-हज़ार लोग करते हैं।

जो नेता सत्ता मे नही होते वे सत्तासीन लोगों को ब्लैकमेल करके खाते हैं। राजनीति मे कभी किसी नेता की हार नही होती। चुनावों के परिणाम का अर्थ है - पाँच साल का पुरस्कार या तिरस्कार, परंतु खाने के मौके सभी के लिए बराबर होते हैं।    

Friday, July 27, 2012

नारी का अपमान



कुछ दिनों पूर्व असम मे एक लड़की को तीस-चालीस लड़कों ने बेरहमी से पीटा। कुछ उसे पीट रहे थे और कुछ उसके वस्त्र फाड़ रहे थे। लड़की चीखती-चिल्लाती रही, मदद की गुहार लगाती रही, परंतु इस क्रूर तमाशे को देखने वाली भीड़ मे कुछ धृतराष्ट्र थे, कुछ भीष्म और कुछ विदुर। उन दरिंदों को रोकता कौन? जो रोकता वही मार ख़ाता। दरअसल बहादुरी घरों की चारदीवारियों मे क़ैद होकर रह गई है।

यदि किसी लड़की का सामूहिक बलात्कार होता है तो होने दो, किसी के बाप का क्या जाता है। लोगों को चिंता केवल अपनी बहू-बेटियों की सुरक्षा की है। लेकिन कब तक? गिद्धों की दृष्टि से कोई कब तक बचेगा? क्या किसी लड़की पर कुदृष्टि डालना बलात्कार से कम है?

आधुनिक युग मे ज्ञान के मंदिर भगवान के मंदिर से बड़े हो गए लेकिन कहीं भी नारी का मान सुरक्षित नही रहा। क्या शहर और क्या गाँव, चारों तरफ नारी केवल भोग की वस्तु बनकर रह गई है। प्रतिपल नारी यौन उत्पीड़न का शिकार बन रही है।

वासना का भूत सभ्यता की कृत्रिमता को भस्म कर देता है। यह सदा से होता आया है। वर्तमान काल की घटनाएँ अतीत की घटनाओं की केवल पुनरावृत्ति बनकर रह गई हैं।

आदिकाल से भारतवर्ष मे नारी पूजनीय रही है। यहाँ नारी को देविरूपा माना गया है। किसी नारी को संबोधित करने के लिए देवी शब्द का प्रयोग केवल इसी देश मे किया जाता है। परंतु दुर्भाग्य है कि आदिकाल से इसी धरा पर नारी का अपमान भी होता रहा है। फिर चाहे वह त्रेता युग मे सीता का अपमान हो, द्वापर युग मे द्रौपदी का या इस कलयुग मे अनगिनत नारियों का। ना केवल भारतवर्ष बल्कि संपूर्ण विश्व मे नारी सदा से तिरस्कृत होती रही है।

सामाजिक संरचना मे नारी का अस्तित्व शून्य है। समाज ने उसे माँ, बहन, बहू और बेटी का दर्जा अवश्य दिया है, परंतु इसी समाज के एक अंग ने नारी को केवल शारीरिक संतृप्ति का माध्यम करार दिया है। यही कारण है वेश्यावृत्ति विभिन्न स्वरूपों मे प्राचीन काल से प्रचलन मे है।  

कुछ समाज के ठेकेदारों का कहना है कि लड़कियों को सौम्य वस्त्र धारण करना चाहिए, ना कि उत्तेजक वस्त्र जैसे जीन्स। यदि ऐसा है तो साड़ी एवम् सलवार कुर्ता पहनने वाली महिलाओं का बलात्कार क्यों होता है? और यदि लड़कियाँ जीन्स ना पहनकर पारंपरिक परिधान पहनने लगें तो क्या घात लगाने वाले कपड़ों की ओट मे छिपे जानवर साधुओं का मार्ग अपना लेंगे?

जब पश्चिम मे नारियों के वस्त्र छोटे हो रहे थे तब परंपरावादी भारत मे रुपहले पर्दे पर मादक परिधानों मे लिपटी अभिनेत्रियों को थिरकते हुए लोग बड़े चाव से देखते थे। आश्चर्य है यही लोग भारत के उच्च वर्ग मे पनपती विदेशी संस्कृति को निर्लज्जता कहते थे। विदेशी हमेशा उन्मुक्त रहे, भारत मे नग्नता को छुपकर देखने का रिवाज रहा है। दमन बुद्धि को नकारात्मक बना देती है। यही दशा पुरुषों के चरित्र के ह्रास का कारण बनती है।

इसका यह अर्थ कतई नही है कि नारी के अपमान के लिए केवल पुरुष ही ज़िम्मेदार है, बल्कि नारी भी कुछ हद तक दोषी है। यह विडंबना ही है कि नारी पढ़ी-लिखी होने के बाद भी विवाह के पश्चात पुत्र-प्राप्ति की अभिलाषा रखती है। पुत्र और पुत्री मे भेदभाव करती है। पूर्व की अपेक्षा वर्तमान मे यह पक्षपात कम तो हुआ है, परंतु ख़त्म नही।

यही हाल सास-बहू के संबंधो का है। ऐसा बिरले ही होता है जब कोई सास अपनी बहू को बेटी का दर्जा देती हो। यह नारी का नारी के प्रति असम्मान का प्रथम चरण होता है। बहुओं का शोषण और दहेज प्रताड़ना जैसी सामाजिक कुरीतियाँ इसी असम्मान की पराकाष्ठा हैं।

परिधानों का चुनाव नारी के लिए एक अत्यंत महत्वपूर्ण विषय है। जीन्स मे कोई बुराई नही है क्योंकि इसे समस्त भारतवर्ष ने स्वीकार कर लिया है। परंतु छोटे कपड़े पहनने का प्रचलन अभी भी सीमित है। अधिकाँशतः लड़कियाँ अथवा महिलाएँ छोटे कपड़े पहनने के बाद असहज महसूस करती हैं परंतु सुंदर दिखने की चाह मे वे ऐसा करने से हिचकतीं भी नही। हालाँकि इसका निर्णय केवल नारी ही ले सकती है कि उसे ऐसे परिधान पहनने चाहिए कि नही।

कारण जो भी हो, नारी अपमानित हो रही है। पांडव आज भी अल्प हैं और कौरवों की संख्या मे अनवरत बढ़ोतरी हो रही है। आधुनिक युग मे द्रौपदी का चीरहारण जारी है।   




Wednesday, July 11, 2012

आम आदमी का मज़ाक


आम आदमी का मज़ाक

चिदंबरम जी, 

आप कहते हैं आम आदमी बोतलबंद पानी और आइसक्रीम खरीदने से नही हिचकता किंतु अनाज के दाम एक रुपये बढ़ने पर हाहाकार मचाता है। क्या आपका आशय यह है कि आम आदमी आइसक्रीम खाकर पेट भरता है और बोतलबंद पानी पीकर प्यास बुझाता है? यदि वह ऐसा करेगा तो अनाज के दामों मे बढ़ोतरी पर चिल्ल-पों क्यों मचाएगा? आप स्वयं ही विरोधाभासी बातें कर रहे हैं, परंतु लगता है जैसे आप अपने बेसिरपैर की कथनी से पूर्णतः अनभिज्ञ हैं।

आप कहते हैं आपने विदेश जाकर अर्थशास्त्र की पढ़ाई की है फिर आप स्वदेश मे इस तरह की अनर्थक बातें क्यों कर रहे हैं? ऐसा प्रतीत होता है जैसे देश की तरह आपकी बुद्धि का विकास दर (growth rate) भी कम होता जा रहा है और मोटाई (inflation) बढ़ती जा रही है। घबराईए मत, यह बीमारी प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह, पूर्व वित्त मंत्री प्रणब मुखर्जी, योजना आयोग के उपाध्यक्ष मोंटेक सिंह आहलूवालिया  और आपकी पार्टी के अनेक सदस्यों को भी है।

दरअसल सरकारी पैसों पर अय्याशी करते करते आप जैसे नेता यह भूल जाते हैं कि जिस जनता ने आपको गद्दी पर बैठाया है वह अभी भी कंगाल है। आप सोचते हैं जैसे आपके इर्द-गिर्द चाटुकार थालियों मे नोटों की गड्डीयाँ सजाकर आपके मुँह मे ठूँसने के लिए तत्पर रहते हैं, वैसे ही किराना दुकान वाला आम आदमी को दो रुपये का पार्ले जी बिस्कुट खरीदने पर एक बोतलबंद पानी और एक आइसक्रीम मुफ़्त मे देता होगा।

आप लोग आम आदमी के पैसों से देश चलाते हैं और उसी पर धौंस जमाते हैं? हद हो गई बेशर्मी की! आश्चर्य है कि आपको गोदामों मे खुले आसमान के नीचे रखे अनाज बारिश मे सड़ते हुए नज़र नही आते लेकिन आम आदमी के जेब मे रखे हुए एक रुपये को आप अपनी गिद्ध जैसी पैनी दृष्टि से आसानी से देख लेते हैं!

चिदंबरम जी, आपका अहंकार आपके लिए विनाशकारी साबित हो सकता है। यह सत्य है कि करोड़ों आम आदमी जितना जीवन भर कमाते हैं उतना आप जैसे नेता अपनी औलादों के नखरे उठाने मे फूँक देते हैं। आप अनाज की बात करते हैं, आपकी सरकार का बस चले तो आम आदमी से जीवित रहने का कर लेने से भी नही चूकेगी।

आप लोगों ने महँगाई को वेताल की तरह आम आदमी की पीठ पर लाद दिया है। आपने कभी किसी आम आदमी के घर जाकर देखा है? आपको एहसास होगा कि आम आदमी का घर छोटा होता है लेकिन दिल बड़ा। उसकी रसोई भले ही खाली दिखेगी लेकिन आपकी थाली मे उसकी हैसियत से अधिक का भोजन होगा, शुद्ध घी से तर। 

आप भले ही आम आदमी के लिए सस्ते अनाज की घोषणा करके अपनी पीठ थपथपाने से बाज़ नहीं आएँगे परंतु वह आपको महँगा और पौष्टिक अनाज खिलाकर भी शालीनता से कहेगा - 'माफ़ कीजिए! भोजन आपके लायक नही था, फिर भी आपने हमारा मान रखा'। अंत मे वह आपको नामी गिरामी कंपनी की बोतलबंद पानी पिलाएगा और उच्च स्तर की आइसक्रीम खिलाएगा। वह यह सब इसलिए करेगा क्योंकि वह मेहमान को भगवान समझता है। उसकी यह समझ उसके संस्कार से आई है। 

लेकिन आपके संस्कार को क्या हुआ? जिस आम आदमी ने अपनी किस्मत की लकीर काटकर आपकी किस्मत चमका दी, आप उसी का मज़ाक उड़ा रहे है? आपने तो यह भी जानने की आवश्यकता नही समझी कि आम आदमी को जो अनाज सरकार कम दामों पर उपलब्ध कराती  है वह खाने लायक है या नही। यदि आप लोग संवेदनशील होते तो लाखों गर्भवती महिलाएँ और बच्चे कुपोषित क्यों होते, देश मे इतना अनाज होते हुए भी कोई भूखा क्यों सोता और आपको राजा बनाने वाले खुद भिखारी क्यों होते?


Sunday, June 24, 2012

Road from finance ministry to Rashtrapati Bhawan..



Finance minister Pranab Mukherjee says he is concerned not depressed on weakening Indian economy. Dear Mr FM, I surmise you are rather depressed instead of being concerned after you discovered that you couldn't worsen country's economy anymore than its existing condition.

Poor Man!! Actually, you seem more depressed on presidential polls. You know that the Big Battle had never been so big for the previous presidential candidates who rather enjoyed support from all parties, but in your case, things have gone awry.

Thanks to your legendary Congress which remained adamant on your candidature because it didn't find anybody else in the party appropriate than you for the job of perfect puppet!!!

Or there are some other reasons behind your selection??

Isn’t it true that you became the natural and popular choice of your party because your proved your puppet-i-ness with such ingenuity that nobody else except Prime Minister Manmohan Singh could have dreamt of doing it with such an ease and comfort??

Yes, the PM could have been better choice than you for presidential candidate, but your party is intelligent enough to not to take such self-ridiculing decisions. After all, pitting the PM for one post up would have been ironically meant doubting his ability to run the country as an active premier. This is how, you came in picture.

Now as a finance minister, won't you concede that you never resisted in frequently implementing whimsical ideas of economical reforms tossed often by the ageing PM and the great deputy chairman of planning commission Montek Singh Ahluwalia who has turned the country into an economical laboratory to do research  on - "kaun banayega desh ko bhikhari? (कौन बनाएगा देश को भिखारी?)"??

The fact is dear Mr Pranb, you are a lost man as an FM. You are undoubtedly one of the most decent guys in the political arena, but alas, failure came to you in the fag end of your career.

Earlier, you seemed less interested in running for presidential race because you didn't want to be remembered as an escapist economist-turned-president.

Nonetheless, when you were rationalized that you wouldn't be able to bring Indian economy back to track and it was once in a lifetime opportunity to wash all the taints by taking a 5-year-long dip in political ganges called Rashtrapati Bhawan (the president's house), you couldn't decline the proposition.

If you really claim that you never played filthy politics and are a man of self-esteem then you should have asked the superwoman of your party not to put a full stop on your political career by sending you on final voyage. You could have publicly announced that Abdul Kalam was more deserving candidate than you for the president post.

Contrarily, Kalam opted to remain out of the game because he twigged that he would never be a unanimous choice to serve the nation again at highest non-political seat.
But Mr Pranab, you are depressed because PA Sangma, your old colleague and other contender for presidential post, wants you to debate with him before both of you would be tested by those who themselves are failure in public eyes.
Why are you hesitant in debating? When you guys at Centre never hesitate in justifying your erratic decisions that eventually cause sufferings to the nation then why can’t you take challenge and reply the questions put by your opponent regarding your candidature?
Again, you will say it is politics and you ought not respond every tom, dick and harry. While we the common people call it double standard. Prove why you are most appropriate choice for presidential post than Kalam, Sangma or anybody else whose name has been put forward by some or the other political party.