Thursday, June 30, 2011

ग़रीब की न सरकार सुनती है, न भगवान



ग़रीब आदमी वाकई ग़रीब होता है. उसे अपने आसपास होने वाले घटनाक्रमों के बारे मे बहुत कुछ पता होता है परंतु अंजान बने रहने मे ही वह अपनी समझदारी मानता है. सरकार भी ग़रीबों से यह अपेक्षा करती है कि वे जानें सब, मगर समझें कुछ न. यह ग़रीब जनता इस देश मे आधे से भी ज़्यादा के तादाद मे पाई जाती है. जब भी कोई मुसीबत आती है पहले इन्ही ग़रीबों का दरवाजा खटखटाती है. आख़िर इन लोगों ने दूसरों पर आई तकलीफ़ों को पहले झेलने का ठेका जो लिया हुआ है.
सरकार भी ग़रीबों से बलिदान मांगती है और कहती है कि तुम ज़्यादा खाओ मत, अनाज ख़त्म हो जाएगा. बेहतर है मर जाओ, कम से कम देश से बोझ तो कम होगा. विपक्षी राजनैतिक दल भी कहते है कि कब तक ग़रीबी का रोना रोते रहोगे, जल्दी मरो और हमें सरकार को घेरने का मुद्दा दो.
ग़रीब सरकार से कहते हैं कि हम भी इंसान हैं, हमें भी शिक्षा दो, स्वास्थ्य दो, कपड़ा दो, घर दो, अरे भई वह सारी सुविधाएँ दो जो बाकियों को मिलती हैं. इस पर सरकार कहती है इतनी जल्दी क्या है? अभी तो तुमने हमे गद्दी पर बैठाया है और अभी से उतारने की योजना बनाने लगे. थोड़ा धीरज रखो. पहले हमे अपना पेट भरने दो. हमारे दल के नेताओं की जेबें आने वाले कई वर्षों तक भरी रहे, ऐसी व्यवस्था करने दो. अपने संगठन को मजबूत करने के लिए पर्याप्त पैसों का जुगाड़ करने दो. हमारे कार्यकर्ता भी ग़रीब हैं, पहले उनकी सुध लेने दो. फिर शायद तुम्हारी बारी आएगी और तब तक चुनाव का समय भी आ जाएगा. उस वक्त तो तुम ग़रीबों की ही चाँदी होगी क्योंकि तुम्हारी पूछपरख और तीमारदारी मे हम कोई कोर-कसर बाकी नही रखेंगे. चिंता मत करो, बस चुनाव आ जाए, और हम तुम्हें मुँहमांगी सुविधाएँ देंगे. और तब तक सुविधाओं का लाभ कागजों मे लो.
सही भी है. वैसे भी क्या रखा है शिक्षा मे? यदि ग़रीब शिक्षा प्राप्त कर लेगा तो उसकी समझ बढ़ जाएगी और वो चुनाव मे अपने मताधिकार प्रयोग करने के समय अपनी बुद्धि पर बल डालना प्रारंभ कर देगा. अपनी आर्थिक स्थिति को सुधारने की बात करेगा. और यदि उसने अधिक मेहनत कर दी तो वह अमीर हो जाएगा. अरे भई, सभी अमीर हो जाएँगे तो ग़रीब कौन रहेगा और चुनाव कौन जिताएगा? अमीर आदमी तो वोट डालने से रहा. इस स्थिति मे ग़रीब ही तारणहार का काम करते हैं.
और यह क्या? ग़रीब स्वस्थ रहने की भी इच्छा ज़ाहिर करने लगे. क्या बात है! अरे, यदि तुम ग़रीब हो तो स्वस्थ कैसे रह सकते हो? तुम्हारे बीमार रहने से तो कितनों की दुकानें चलती हैं. फिर जब तुम परलोक सिधार जाते हो तो देश की आबादी मे कमी आती है. यहाँ तुम्हें कोई बचाने वाला नही है, सब तुम्हें जीते जी मारने के फिराक मे हैं. इसलिए, बीमार रहो और मरो. और हाँ, अगर तुमने थोड़ा धन अपने इलाज के लिए संभालकर रखा है तो उससे दो पल की खुशियाँ खरीद लो. अब तो बाज़ार मे खुशियों की दुकानें भी सजने लगी हैं. इलाज के लिए तुम्हे इंतज़ार करना होगा. यह कतार कुछ लंबी है. शायद एक दिन ऐसा भी आएगा जब ग़रीबों का इलाज संभव होगा.
रही बात घर, कपड़े और अन्य सुविधाओं की तो यदि यह सब ग़रीबों को प्राप्त हो जाए तो वे ग़रीब कैसे कहलाएँगे? फिर मनुष्यों  का वर्गीकरण कैसे होगा? फिर अमीर और ग़रीब मे फ़र्क क्या रह जाएगा? ऐसे कैसे चलेगा? भई कोई तो हो जिसपर धनी अपना रौब जमा सके. इसलिए सुविधाओं की माँग बेमानी है. अगर ग़रीब हो तो इसमे किसी अमीर का क्या कुसूर? तुम्हारा भाग्य ही खराब है. माँगना है तो अपने भगवान से माँगो जिसने तुम्हे ग़रीब बनाया. परंतु वो तो तुम्हारी कभी सुनता नही फिर बाकियों से इतनी अपेक्षा क्यों?
ग़रीब आदमी कहता है कि यार बहुत तकलीफ़ है - पेट्रोल की कीमतें आसमान छू रही हैं, खाने की वस्तुओं के दाम सोने-चाँदी की तरह उछल रहे हैं,  भ्रष्टाचार बढ़ रहा है, जीना दूभर हो गया है. इस पर सरकार कहती है पागलों तुमसे किसने कहा शौक पालने के लिए - ईंधनयुक्त वाहनों से तुम्हें कोई सरोकार नही होना चाहिए,  भोजन जब मिल जाए स्वयं को धन्य समझो. और भ्रष्टाचार तुम्हारा क्या बिगाड़ेगी, तुम तो ऐसे ही ग़रीब हो.
ये ग़रीब ग़रीब नही बल्कि शिकायतों का पुलिंदा हैं. इसलिए जब सरकार इनसे पल्ला झाड़ लेती है तो ये भगवान की ओर उन्मुख होते हैं. किंतु भगवान के घर भी इन्हें निराशा ही हाथ लगती है और ये पाँव पटकते हुए उपर आसमान की ओर देखते हुए कहते हैं कि यार कुछ कर नही सकता तो धरती पर क्यों भेजा, उठा ले!
ग़रीब जब घर की मरम्मत करना चाहता है तब बाढ़ उसके घर को ही बहा ले जाती है. ग़रीब की लड़की हमेशा शोषित होती है. जब उसके पास पहनने को कपड़े नही होते और वह चिथड़ों मे लिपटी होती है तो कुछ शुभचिंतक बनने का दिखावा करते हुए उसे अपनी हवस का शिकार बना लेते हैं. और जब वह अच्छे कपड़े पहनने लगती है तो उसके चाल-चलन पर संदेह किया जाता है. वार री दुनिया - चित भी मेरी और पट भी मेरी. अरे ग़रीब की लड़की को तो छोड़ दो, वह भी तो बेचारी नारी है. परंतु नारी का सम्मान करने की क्या आवश्यकता है, समाज का नियम है केवल दिखावा करो,  हृदय से कुछ न करो.
ग़रीब का लड़का तो और ग़रीब होता है. उसे कहा जाता है ज़्यादा सपने देखना अच्छी बात नही है. ग़रीब हो, ग़रीब ही रहो. थोड़ी पढ़ाई कर सकते हो पर अधिक नही. ये क्या क्रिकेट, हॉकी जैसे खेलों के प्रति आकर्षित होते हो, खेलना है तो गिल्ली-डंडा खेलो. इसलिए शायद जब ग़रीब बच्चे कठिन परस्थितियों का सामना करते हुए कुछ बन जाते हैं तो अपने अतीत के झरोखों को बंद कर देते हैं. क्योंकि उन्हें अपना अतीत कभी यादगार नही लगता बल्कि हमेशा भयावह प्रतीत होता है. कुछ सफलता की सीढ़ियाँ चढ़ने के बाद समाज के प्रति अपने आक्रोश को दबा नही पाते क्योंकि यही समाज उनकी तरक्की के मार्गों को बंद करने मे व्यस्त रहता है. इसलिए तिरस्कार कुछ ग़रीब बच्चों को अपराध जगत की ओर धकेलता है.
अब जिस ग़रीब का हर पग काँटों पर ही पड़ता हो तो वह तो दर्द से चीखेगा ही न? और जब उसकी चीख को भगवान भी नही सुनता तो वह बदहवास हो जाता है. उसे समझ नही आता की वह क्या करे, जीवित रहे अथवा मृत्य का वरण कर ले. परंतु इसी कशमकश मे उसके दिन बीतते जाते हैं और एक दिन वह वाकई साँस लेना छोड़ देता है.

Friday, June 24, 2011

वर्षा ऋतु मे संगीत का महत्व



वर्षा ऋतु की प्रथम बूँदों का बहुत महत्व है क्योंकि जब सूर्य की उतप्त किरणों से झुलसी हुई पृथ्वी का ये आलिंगन करतीं हैं तब आनंद से अभिभूत प्रकृति मधुर संगीत की रचना करती है. रचनाओं के इस संसार मे चलचित्रों (फिल्मों) का अपना अलग ही स्थान है. दरअसल चलचित्रों मे भावनाओं को अभिव्यक्त करने के दर्शनीय माध्यम अपनाए जाते हैं. वर्षा से संबद्ध कुछ अभिव्यक्तियों को तो चलचित्रों ने अविस्मरणीय बना दिया है. ऐसी ही एक अभिव्यक्ति गीत के माध्यम से 'परख' नामक चलचित्र मे संगीतकार सलिल चौधरी चित्रित की है. इस कर्णप्रिय गीत मे एक अनोखी स्फूर्ति है. मैं आप सभी प्रबुद्धजनों को आग्रह करता हूँ कि इस रचना से स्वयम् को कुछ क्षणों के लिए जोड़ कर अनुभूत करें.

ओ सजना, बरखा बहार आई

फ़िल्म - परख, गायिका - लता मंगेशकर, संगीत - सलिल चौधरी, गीत -शैलेन्द्र

(
ओ सजना, बरखा बहार आई
रस की फुहार लाई, अँखियों मे प्यार लाई ) -
ओ सजना
तुमको पुकारे मेरे मन का पपिहरा - २
मीठी मीठी अगनी में, जले मोरा जियरा
ओ सजना ...
(ऐसी रिमझिम में ओ साजन, प्यासे प्यासे मेरे नयन
तेरे ही, ख्वाब में, खो गए ) -
सांवली सलोनी घटा, जब जब छाई -
अँखियों में रैना गई, निन्दिया न आई
ओ सजना ...




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Sunday, June 12, 2011

नक्सलवाद मे राजनीतिक आयाम



देश मे बढ़ते नक्सली आतंक को न तो राज्य सरकारें रोकने मे सफल हो पा रहीं हैं न ही केंद्र कुछ कर सकने की स्थिति मे दिखाई देती है. उपाय कोई नही कर रहा है, राजनीति सभी करना चाहते है. आरोप प्रत्यारोप के दौर वर्षों से चल रहे हैं परंतु राजनीतिक दल नक्सलियों के खिलाफ मुहीम मे कभी भी एकमत नही हो पाए.
वजह बहुत हैं. हर वजह एक अध्याय से कम नही है.अगर संक्षिप्त मे समझा जाए तो प्रत्येक राजनीतिक दल नक्सली मुद्दे पर अपनी रोटी सेंकना चाहते हैं. सबके अपने अपने स्वार्थ हैं. आम जनता के बारे मे किसी को सोचने की फ़ुर्सत नही है. भई हो भी क्यों? एक तो नेतागिरी, उपर से यदि सत्ता का स्वाद मिल जाए तो दोनो हाथ घी मे और खोपड़ी कढ़ाई मे ही होंगे न? फिर चाहे नक्सली आतंक फैलाए या कोई और, किसे परवाह है.
तो समाधान क्या है? नक्सल-प्रभावित राज्य सरकारों ने साम-दाम-दंड-भेद अपना कर देख लिया लेकिन नक्सलियों का बाल भी बांका नही कर पाए. शांति का मार्ग तो नक्सलियों को कभी रास नही आया. वे तो बल्कि हर शांति प्रस्ताव के उपरांत भाँति-भाँति प्रकार की वीभत्स घटनाओं को अंजाम देते आए हैं. इसका तात्पर्य है नक्सली अहिंसा का रास्ता कभी (या शायद अभी नही) नही अपनाएँगे.
तो लड़ाई आर-पार की ही बचती है. पर इस लड़ाई को कौन लड़े – नक्सल-प्रभावित राज्य सरकारें, केंद्र या आम जनता?
यदि राज्य सरकारों की बात की जाय तो उनका हमेशा यही रोना रहता है कि केंद्र उन्हें नक्सलियों से लड़ने के लिए पर्याप्त संसाधन मुहैया नही कराती.
उधर केंद्र सरकार आरोप लगाती है कि राज्य सरकारें अपनी अक्षमता को छुपाने के लिए उसके दामन को दागदार करने को आतुर हैं.
रह गई नक्सली-प्रभावित क्षेत्रों मे वास करने वाली आम जनता. ये नक्सलियों से अपने स्तर पर जूझ रही है. दरअसल आमजन  के संघर्ष का कोई मूल्य नही है. यदि होता तो राजनेता इनकी सुध बहुत पहले ही ले लिए होते और इनको संघर्ष करने की आवश्यकता ही नही पड़ती. आम जनता के अपने दायरे हैं. वो नक्सलियों को खदेड़ नही सकती, केवल उनसे असहमत हो सकती है. विशेष परिस्थितियों मे वो उनसे दो-दो हाथ भी कर सकती है परंतु ऐसा दुस्साहस दिखाना सबके बूते मे नही है.
तो क्या जो विधि केंद्र ने पंजाब मे आतंकवादियों से निपटने के लिए अपनाई थी वही नक्सल-प्रभावित राज्यों मे लागू की जा सकती है? यह संभव तो है परंतु इसकी व्यावहारिकता पर प्रश्नचिन्ह लग सकते है. साथ ही इस प्रयोग मे भारी मात्रा मे जनहानि होने की संभावना है.
रह जाती है सेना जिसका उपयोग केंद्र ऐसी परिस्थितियों मे करती है जब उसके पास कोई उपाय शेष नही रह जाता. सेना के उपयोग से भी जनहानि की आशंका बनी रहेगी. परंतु सेना अपने कार्यों को संपादित करने के लिए अनूठे तरीके अपनाने के लिए मशहूर है. फिर भी वह नक्सलियों को पटखनी देने के लिए उनकी ही शैली आज़माने मे हिचकेगी नही.
लेकिन नक्सली केवल जंगलों मे ही नही अपितु शहरों मे भी पाए जाते हैं. इनका वृहद तंत्र शहरी क्षत्रों मे फैला हुआ है. आतंकी घटनाओं को अंजाम देने से लेकर अन्य कार्य-योजनाओं पर आखरी मुहर शहरों मे रहने वाले नक्सली ही लगाते हैं. ये मुख्यधारा मे रहने वाले आतंकी हैं जिन्हें हम सफ़ेदपोश आतंकवादी कह सकते हैं.
परंतु अफ़सोस यह है कि ये राजनीति मे भी दखल रखते हैं. यह बात अलग है  कि बहुत से राजनेता इनके असली रंग से वाकिफ़ नही हैं और केवल इनकी सामाजिक प्रतिष्ठा और प्रभावशाली बातों की वजह से इनसे जुड़े हुए हैं. कुछ राजनीतिक दलों मे तो नक्सली बकायदा नेताओं की हैसियत से जनता की भावनाओं से खिलवाड़ कर रहे हैं. कुछ सरकारी नौकरी कर रहे हैं और कुछ व्यापार मे संलिप्त हैं.
कुछ नक्सली समर्थकों को तो केंद्र ने अपनी समितियों मे भी स्थान दिया है. केंद्रीय समितियों मे सदस्यता हासिल करने वाले इन लोगों पर राजद्रोह के गंभीर आरोप लगे हैं. ऐसे आरोप इनपर तब लगे जब इनकी संदिग्ध गतिविधियों और नक्सलियों से नज़दीकियों का खुलासा हुआ.
कुछ नक्सली समर्थकों ने साधुओं का वेश धर लिया है और उन्हें आप अनेक प्रकार के मंचों पर देख सकते हैं. वे कभी सरकार और नक्सलियों के बीच सेतु बनते हैं तो कभी भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलनों मे दिखाई पद जाते हैं. कुछ नक्सली समर्थक मानवाधिकार की आड़ मे अपना हाथ खून से रंगे हुए हैं और उन्हें यह खेल आत्मिक संतुष्टि देता प्रतीत होता है.
समाज के इन धब्बों को (नक्सलियों और उनके कट्टर समर्थकों को) पहचानना बहुत कठिन है. जो पहचाने जा रहे हैं उनको बचाने वालों की संख्या अनगिनत है. बड़ी विडंबना है. ऐसी स्थिति  मे सेना भी असमंजस मे पढ़ जाएगी.
तो क्या यह ज़िम्मेदारी राज्य और केंद्र सरकारों की नही है जिन्हें आम जनता अपना कीमती वोट देकर सत्ता मे बैठाती है? फिर क्यों ये एक-दूसरे को कोसने मे समय बर्बाद कर रहे हैं? बेहतर यह होगा की वे सत्ता छोड़ें और किसी अन्य दल को मौका दें जो नक्सली समस्या का समाधान कर सके.



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Thursday, June 9, 2011

क्या स्वामी रामदेव अपने उद्देश्य से भटक रहे हैं?


स्वामी रामदेव ने जब भ्रष्ट्राचार के विरुद्ध सत्याग्रह का ऐलान किया था तब देश-विदेश से हज़ारों लोगों ने उनका समर्थन किया था. इसका परिणाम यह हुआ की जब वे अनशन पर दिल्ली के रामलीला मैदान पर बैठे तब उनके साथ न केवल आम जनता थी बल्कि अनेकों राजनैतिक पार्टियाँ भी थीं. केंद्र सरकार ने स्वामी रामदेव को मनाने का भरपूर प्रयास किया पर जब वह सफल न हुई तब उसके इशारे पर (यह आरोपित है) दिल्ली पुलिस ने सत्याग्रहियों पर बर्बरतापूर्वक लाठियाँ बरसाईं. स्वामी रामदेव को हरिद्वार लौटना पड़ा जहाँ से उन्होने अपनी भ्रष्ट्राचार विरोधी मुहीम को जारी रखने की घोषणा की.
जनता का समर्थन उनके पास अब भी था. लोग स्वामी रामदेव के आहत होने के दर्द को महसूस कर रहे थे. उन्हें पता था यह अभियान कितना काँटों भरा है. परंतु स्वामी ने जल्दबाज़ी मे अपनी सेना बनाने की बात कह दी. लोग सन्न रह गये. सेना सदैव देश की सुरक्षा के लिए गठित की जाती है और देश के भीतर शांति बहाल रखने की ज़िम्मेदारी पुलिस की होती है. स्वामी रामदेव के मुँह से सेना गठन की बात लोगों को रास नही आई. उन्हें लगा यह विद्रोह का बिगुल है.
भ्रष्टाचार के विरुद्ध मुहीम का अर्थ था देश और समाज से गंदगी निकालने की प्रतिबद्धता परंतु अलग से सेना खड़ी करने का तात्पर्य भी अलग  होता है. स्वामी ने कहा सेना को वे शास्त्र और शस्त्र दोनो मे ही पारंगत करेंगे. लोग चौंक उठे. शस्त्र शिक्षा की क्या आवश्यकता पढ़ गई?
स्वामी का कहना है क़ि सेना अहिंसा के पथ पर चलेगी. वे कहते है शस्त्र विद्या का दुरुपयोग नही किया जाएगा और यह केवल आत्मरक्षा के लिए काम आएगा. परंतु  आत्मरक्षा का मतलब है जवाबी कार्रवाई. यही कार्य तो चरमपंथी भी करते हैं. नक्सली इसके प्रामाणिक उदाहरण हैं.
स्वामी रामदेव जी, कहीं आप सेना गठित करने की बात स्वामी अग्निवेश के बहकावे मे आकर तो नही कह गये. अग्निवेश का नक्सलियों के प्रति सहानुभूति जगजाहिर है. वे कब और कैसे आपको भावनाओं मे बहाकर अपनी बात मनवा लेंगे, आप कल्पना भी नही सकते. अग्निवेश जैसे लोगों से आपको सावधान रहना चाहिए क्योंकि ये आपकी राष्ट्रभक्ति को देशद्रोह मे तब्दील कर सकते है.
अभी तक तो केंद्र सरकार यह कहती रही है कि आपका सत्याग्रह राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, विश्व हिंदू परिषद और भारतीय जनता पार्टी के समर्थन से चल रहा है. लेकिन जैसे ही आप सेना का गठन करेंगे, केंद्र अन्य पहलुओं पर गंभीरता से विचार करना प्रारंभ कर देगी.
आप पर यह आरोप लगाया जा सकता है कि आप भोली-भाली जनता को भड़काकर उन्हें राष्ट्र विरोधी गतिविधियों मे शामिल कर रहे हैं. आपकी तुलना नक्सलियों से भी की जा सकती है. हो सकता है आपकी अग्निवेश से नज़दीकियों का केंद्र कोई विशेष अर्थ निकाल ले और आपको नक्सलियों का एजेंट करार दे.
आप पर कई लोगों ने यह भी इल्ज़ाम लगाया है कि आप अपनी राजनैतिक महत्वाकांक्षा को साकार करने के लिए भ्रष्टाचार विरोधी सत्याग्रह को तूल दे रहे है. कुछ का कहना है की यह मुहीम अन्ना हज़ारे ने प्रारंभ की थी और उनके तेज को निस्तेज करने के लिए आपने और भी व्यापक स्तर पर इस आंदोलन को चलाने का प्रयास किया.
लोग कहते हैं अन्ना के सहज और साधारण सत्याग्रह की तुलना मे आपने अपने अभियान मे समस्त प्रकार की आधुनिक सुविधाओं का समावेश करने के साथ साथ सत्याग्रह की संपूर्ण गतिविधियों को कैमरे मे क़ैद करने की व्यवस्था की थी ताकि देश-विदेश मे यह बात प्रचारित हो सके कि आप कितने प्रभावशाली हैं.
स्वामीजी, क्यों इतने लांछन मोल लेते है? सीधे सीधे भ्रष्टाचार के विरोध मे अनशन जारी रखें ताकि लोग आपसे जुड़ते जाएँ,  न कि अलग हों. अन्ना ने साफ इशारा कर दिया है कि वे आपकी सेना वाली घोषणा से चकित ही नही बल्कि विस्मित भी हैं. आपने जब योग के साथ साथ भ्रष्टाचार के विरोध मे जनजागरण फैलाने के लिए भारत स्वाभिमान मंच की स्थापना की तो लोगों ने आपके इस निर्णय का स्वागत किया. फिर आपने भ्रष्टाचार के विरोध मे अनशन पर बैठने का निर्णय लिया जिसे लोगों ने पुनः समर्थन दिया.
तो क्या कारण है कि आप इन महत्वपूर्ण उद्धेश्यों मे अपना ध्यान केंद्रित करने के बजाय केंद्र सरकार से लोहा लेने की होड़ मे लग गये? लोग बहुत से कयास लगाएँगे. राजनैतिक पार्टियों की आपके प्रति एक अलग राय बनेगी. जो आपसे सहमत नही होंगे वे आपके विरोध मे बातें करेंगे और अनेकों को प्रभावित भी करेंगे. हो सकता है केंद्र आपको तंग करने की ठान ले और आपको फँसाने के लिए तरह तरह के हथकंडे अपनाए. तब शायद आप के पास कोई चारा ना हो और आप मजबूरी मे किसी राजनैतिक पार्टी मे शामिल हो जाएँ. भाजपा मे आपके शामिल होने के कयास तो एक अर्से से लगाए जा रहे हैं. फिर आप भी अपने विरोधियों द्वारा संप्रदायवाद को बढ़ावा देने वाले साधु के रूप मे प्रचारित किए जाएँगे.
अतः आपको पग पग मे सावधान रहने की आवश्कता है. वरना केंद्र हो या विपक्ष, कौन कब किस करवट बैठ जाएगा आपको पता नही लगेगा और आप ठगे के ठगे रह जाएँगे.


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