Wednesday, January 18, 2012

क्या क्रिकेट अन्य खेलो के अस्तित्व को ख़त्म कर देगा


  
भारत मे खेल उच्च वर्ग का शौक है तथा मध्य व निम्न वर्गों के लिए प्रतिभा प्रदर्शन का माध्यम. लेकिन यहाँ क्रिकेट के अलावा देश के लिए अन्य खेल खेलने का अर्थ है खोखली प्रतिष्ठा पाना और परिवारवालों को सड़क पर लाना.

दरअसल साधारण परिस्थिति मे असाधारण प्रतिभा को सहेजने वाले खिलाड़ी देश का प्रतिनिधित्व बड़े जोश मे करते हैं, परंतु जब हाथ मे पैसा आता है तो उनके होश फाख्ता हो जाते हैं. अचानक उन्हें अपना भविष्य अंधकारमय लगने लगता है. वो एक क्षण मे अपना पूरा भविष्य देख लेते हैं और यह सोचकर काँप उठते हैं कि कहीं गले मे स्वर्ण पदक लटकाकर आजीविका के लिए उन्हें आने वाले समय मे सड़कों पर फेरी ना लगाना पड़े.

वहीं क्रिकेट खिलाड़ियों को जैसे ही देश के लिए खेलने का अवसर मिलता है वे स्वयं को चौंसठ गुणों से संपन्न कृष्ण के समतुल्य मानने लगते हैं. जब दर्शक उनकी सहजता से असहज महसूस करने लगते हैं  तब वो अपनी विराट प्रतिभा का प्रदर्शन करते हैं. आश्चर्य है कि ये हार कर भी करोड़ों कमाते हैं, फिर भी इनकी तकदीर का रोना जनता रोती है जैसे उसका सर्वस्व लुट गया हो.
अर्थात क्रिकेट छोड़कर किसी भी अन्य खेल को अपनाना अपनी बेइज़्ज़ती कराना है. लेकिन ऐसे शौक फरमाने वालों की फेहरिस्त बड़ी लंबी है. सुविधाहीन हालातों मे इनका अभ्यास एकलव्य की धनुर्तपस्या से कम नही होता. परंतु ये भले ही अंतरराष्ट्रीय स्तर पर स्वयं को स्थापित कर लें, राष्ट्र इन्हें सदैव पहचानने से इंकार करता रहेगा.
इनका बुढ़ापा शास्त्रीय संगीत के महारथियों सा होता है, एकाकी और तकलीफ़देह. सरकार केवल अपनी सुध लेती है इसलिए इनकी तो लेने से रही. बच जाते हैं परिवारवाले और पड़ोसी. वो भी इन्हें खरी-खोटी सुनाने से बाज़ नही आते और गाहे बगाहे कहते रहते हैं कि ऐसे खेल खेलने का क्या मतलब जिसके एवज मे ग़रीबी, तंगी और बदहाली के दिन देखना पड़े.
वर्तमान मे सभी खेल संस्थाओं को राजनेता चला रहे हैं. इसलिए मैदान के बाहर नेताओं के पेट फूले रहते हैं और मैदान मे खिलाड़ियों के हाथ-पावं. खिलाड़ी समझने लगे हैं कि मैदान मे प्रवेश का रास्ता चापलूसी है, कौशल नही.  
आधुनिक युग मे खेल और खिलाड़ी गौण हो गए हैं और इनपर हावी हो गया है बाज़ारवाद. मैदानों मे खेल कम हो रहे हैं और आईपीएल जैसे तमाशे अधिक. बड़ी विडंबना है कि क्रिकेट के प्रसारण के लिए अनेक टीवी चैनल्स हैं परंतु अन्य खेलों को दूरदर्शन मे चित्रहार की तरह दिखाया जाता है.
क्रिकेट सभी खेलों का बाप बन गया है और अन्य खेलों के अस्तित्व को तेज़ी से समाप्त कर रहा है. कोई आश्चर्य नही जब भविष्य मे क्रिकेट को छोड़कर अन्य खेल सुनहरे अतीत के पन्ने बनकर केवल किताबों की शोभा बढ़ाते हुए दिखें.




Thursday, January 12, 2012

काँपते सभी हैं, सर्दी हो ना हो


सर्दियों का मौसम रूमानियत का एहसास तभी दिलाता है जब तन पर लिपटे हुए कपड़ों से टकराकर हवा बौरा जाए. परंतु ऐसे कपड़े सभी के पास होते कहाँ हैं? इसलिए अभावग्रस्त लोग काँपते हैं.

उत्तर भारत शीत लहर की चपेट मे है इसलिए वहाँ लाखों लोग काँप रहे हैं. मध्य भारत मे साल के नौ महीने गर्मी रहती है और तीन महीने कम गर्मी. लेकिन वहाँ के निवासी कम गर्मी को ठंड समझकर ज़बरदस्ती काँप रहे हैं.

दक्षिण मे सर्दी शब्द का उपयोग केवल खाँसी के साथ किया जाता है. वहाँ मसालों और मौसम की गर्मी कमोबेश समान ही होती है. वहाँ के लोग समाचारों मे ठंड की खबर सुनकर ही काँप जाते हैं.

केंद्र मे कांग्रेस की गठबंधन सरकार दाँत किटकिटा रही है क्योंकि उसे पाँच राज्यों मे होने वाले चुनावों की चिंता है. भाजपा व अन्य दल भी ठिठुर रहे हैं. उन्हें भी जनता की मुट्ठी मे अपने भविष्य को जकड़ा हुआ देखना रास नही आता.

प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह पत्नी से कम सोनिया और राहुल गाँधी से ज़्यादा काँपते हैं. उनकी परेशानी यह है कि वे कांग्रेस मे केवल इन्हीं दोनो पहचानते हैं और दोनो ही ख़तरनाक हैं.

लालकृष्ण आडवाणी इस बात से काँपते हैं कि कहीं अगले आम चुनाव मे भाजपा उन्हें छोड़ नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री का उम्मीदवार ना बना दे. वहीं भाजपा आडवाणी की उम्र के साथ उनकी बढ़ती महत्वाकांक्षा से सिहर  जाती है.

अन्ना हज़ारे ने प्रतिज्ञा  की है  कि जब तक संसद मे सशक्त लोकपाल विधेयक पारित नही होगा, वे क्रोध से काँपते रहेंगे. उन्हें दुख है कि राजनेताओं ने उन्हें फिर धोखा दिया और लोकपाल विधेयक का तमाशा बना दिया. अफ़सोस कि राजनेता हमेशा से यही करते आए हैं. लेकिन जनता को कभी गुस्सा नही आया. जब तक जनता चुप रहेगी, क्रांति संभव नही है.

मायावती, ममता बनर्जी और जयललिता स्वयं को नारी शक्ति का प्रतीक मानतीं हैं.  इन्हें कभी किसी का ख़ौफ़ नही रहा बल्कि ये ही लोगों को ख़ौफज़दा रखतीं हैं.

आम आदमी ने तो जन्म ही लिया है काँपने के लिए. उसे भौतिक तल पर ज़िंदगी कँपाती है और आध्यात्मिक तल पर भगवान.  ग़रीब महँगाई से काँपता है और अमीर रुसवाई से. पुलिस अपराधियों से ख़ौफ़ खाती है और अपराधी पुलिस की बढ़ती हफ़्ताखोरी से.

भूख से बिलबिलाते कुपोषित बच्चों को देखकर लोग ठिठक जाते हैं, सिहर जाते हैं और फिर बड़ी सहजता से अपने कुत्तों को पोषक आहार देने के विषय मे चर्चा करने लगते हैं.  

लोग फटी हुई जींस हज़ारों रुपए मे खरीद लेते हैं लेकिन चिथड़ों मे लिपटे ग़रीबों को अपने पुराने कपड़े देने से हिचकते हैं. दान चंद सिक्कों मे सिमट गया है और पुण्य का सहज मार्ग बन गया है.  इसलिए ठंडी हवाएँ ग़रीबों को हमेशा कँपातीं रहेंगी, सरकारें आम लोगों का शोषण करती जाएँगी, ज़िंदगी महँगी हो जाएगी और मौत सस्ती!!!