Thursday, November 24, 2011

पी एम अंकल, क्या मेरे पापा पेट्रोल वाली गाड़ी नही चला सकते?


आदरणीय प्रधानमंत्री जी! मैं छह साल का छोटा सा बच्चा हूँ. आशा करता हूँ कि यदि मैं आपको पी एम अंकल कहकर संबोधित करूँगा तो आपको अजीब बिलकुल नही लगेगा. चाचा नही पुकारूँगा. क्योंकि बहुत पहले बच्चों ने एक व्यक्ति को ग़लती से चाचा कह दिया था और अब तक उसके परिवार वाले उस रिश्ते को भुना रहे हैं. अंकल ठीक है - इससे प्रेम भी बना रहता है और थोड़ी दूरी भी कायम रहती है. कभी कभी रिश्तों का अँग्रेज़ीकरण सही प्रतीत होता है.

हाँ तो पी एम अंकल, मेरे पापा कहते है आप देश के राजा हैं और हम सब आपकी प्रजा. उनका कहना है कि राजा का मुख्य कर्तव्य होता है - प्रजा के हितों का ध्यान रखना. परंतु अंकल, क्या आपको ऐसा नही लगता कि आप हमारे हितों को नज़रअंदाज़ कर रहे हैं?

देखिए न, पिछले कुछ वर्षों मे आपने पेट्रोल के दाम मे कितनी बढ़ोतरी कर दी. उसी तारतम्य मे दैनिक उपयोग की अन्य वस्तुओं के दाम भी बढ़ गए. लेकिन लोगों ने जीना नही छोड़ा. हम भी जी रहे हैं. अंकल, हम समाज के उस वर्ग का प्रतिनिधित्व करते हैं जिसे मध्य और उच्च वर्ग हेय की दृष्टि से देखते हैं. मेरे पापा कहते हैं हम समाज की नज़र मे कीड़े मकोडे हैं. खुशियाँ हमारे घर को देखकर मुँह बिचकातीं हैं. दुख और परेशानियों से हमारा गहरा नाता है. पेट्रोल वर्तमान काल का तरल सोना है और सोना ग़रीबों को स्वप्न मे भी नही दिखता.

परंतु मैं इन बड़ी बड़ी बातों से कोई वास्ता नही रखना चाहता. मैं अपना बचपन जीना चाहता हूँ. इसलिए, इस दीवाली मैने हठ करके पापा को एक दुपहिया वाहन खरीदने के लिए मजबूर कर ही दिया. लोग इस वाहन को मोपेड कहते हैं  - अर्थात छोटी गाड़ी. पापा ने बताया कि पूरे 24 हज़ार रुपए की है हमारी गाड़ी.

मुझे नही पता रुपयों का ऐसा क्या महत्व है कि उसे खर्च करते समय लोगों के चेहरों पर शिकन उभर आती है. पापा आम जनजीवन का हिस्सा ही तो हैं. शिकन उनके चेहरे पर भी थी. लेकिन मुझे तो केवल इस बात की खुशी थी कि हमारे घर एक गाड़ी आ ही गई.

पापा पहले साइकिल चलाते थे. वे कभी गाड़ी खरीदने की हिम्मत नही जुटा पाए. कहते थे पूरी तनख़्वाह तो पेट्रोल मे उड़ जाएगी, फिर खाएँगे क्या. मगर मेरी ज़िद के आगे उनकी एक न चली. आख़िरकार घर मे गाड़ी आ ही गई. परंतु उसमे बैठने का सौभाग्य मुझे अब तक केवल दो-तीन बार ही प्राप्त हुआ  है.

पापा कहते हैं विशेष अवसरों पर ही गाड़ी का प्रयोग करेंगे. रोज़ रोज़ पेट्रोल का खर्चा कहाँ उठा पाएँगे. अभी तो इसकी किश्तें चुकानी है. यही बहुत बड़ा सरदर्द है. हाथी है ये हाथी. इसे तेल पिलाते पिलाते तो हमारा ही तेल निकल जाएगा. साइकिल अब भी ठीक है. टायरों मे हवा डालो और चल पड़ो सरपट पैडील मारते. दूर-दराज जाना हो तो बस-ट्रेन की सुविधा तो है ही.

मुझे तो पापा की बातें अच्छी नही लगतीं. अब ऐसा भी क्या. जब घर मे गाड़ी आ ही गई है तो उसका थोड़ा तो इस्तेमाल होना ही चाहिए न? अगर कहीं नही जाना है तो मुझे थोड़ा घुमा ही दो. मन बहल जाएगा.

लेकिन मैं जब भी पापा को गाड़ी मे घुमाने के लिए कहता हूँ, वो झिड़क देते हैं. मम्मी मुझे समझाने का व्यर्थ प्रयत्न करती है और सरकार को कोसती है. कहती है मुई सरकार भी ग़ज़ब है, पेट्रोल के दाम सीधे सीधे दस-बीस रुपए क्यों नही घटा देती. अरे ग़रीब की दुआ मिलेगी. पापा कहते हैं मम्मी बड़ी भोली है, उसे क्या पता कि सरकार की नज़र ग़रीब की दुआ पर नही बल्कि उसकी खुशियों पर है.

एक दिन पापा बहुत खुश थे. आफ़िस से घर आते ही मुझे गाड़ी मे घुमाने ले गए. जब मैने उनकी खुशी का कारण पूछा तो उन्होने बताया कि सरकार ने पेट्रोल के दाम दो रुपए घटा दिया है. मैं भी खुश हुआ. मैने कहा - पापा सरकार कितनी अच्छी है न, हमारा कितना ख्याल रखती है. पापा मुस्कुराए. उन्होने कहा बेटा यदि सरकार हमारा ध्यान रखती तो क्या हम इस हालत मे रहते. दरअसल सरकार सिर्फ़ अपना ख्याल रखती है. जनता की ज़रूरतों और परेशानियों से उसे कोई सरोकार नही है.

मुझे बड़ा आश्चर्य हुआ. मैने पूछा - पापा फिर हम बुरे लोगों को सरकार चलाने का मौका क्यों देते हैं? पापा चौंके. उन्हें विश्वास नही हुआ कि मेरे जैसा छोटा बच्चा भी ज्वलंत प्रश्न कर सकता है. उन्होने कहा इस प्रश्न का जवाब अभी तक कोई नही दे पाया है.  मैने कहा आप भी तो हमारे घर के राजा हैं. हमे पालते हैं. आपने तो कभी हमारा अहित नही सोचा. जब सरकार निकम्मी है, पी एम नकारा है तो आप ही बन जाओ न देश के राजा. मुझे यकीन है आप सभी को खुश रखोगे. पापा की आँखें छलछला गईं. उन्होने कहा बेटा देश चलाना बड़ी बात है, घर तो कोई भी चला सकता है.

मैने कहा - पापा कोई बड़ा फ़र्क नही है. यदि देश को घर जैसे चलाया जाए तो क्या चारों तरफ खुशहाली और शांति नही होगी? केवल स्वार्थ ही तो छोड़ना है. आख़िर स्वार्थी होने की ज़रूरत ही क्या है? आप ही तो कहते हैं कि देश चलाने के लिए तनख़्वाह भी मिलती है और सुविधाएँ भी. फिर काले धन जमा करने की क्या आवश्यकता है. धन बटोरकर जेल मे रहने से क्या फ़ायदा. पापा भौंचक्क रह गए. पूछे - बेटा तुम क्या टेलीविज़न मे समाचार भी देखने लग गए? इनमें समय नष्ट ना करो, पढ़ो और मनोरंजन के लिए कार्टून चैनल देखो, ज्ञान के लिए डिस्कवरी.

मैं चुप रहा. लेकिन पी एम अंकल, आपसे बोलूँगा. आप तो महाज्ञानी हैं, बड़े अर्थशास्त्री हैं, फिर आपसे ये कैसा अनर्थ हो रहा है. दाल-चावल, सब्जी-भाजी, तेल-पानी, साबुन-सोडा सब महँगा हो गया. अरे, जिस दो रुपए के बिस्किट को मैं खाया करता था वो भी अब ढाई का हो गया. आप फिर भी कहते हैं कि देश उन्नति कर रहा है. ग़रीब पिसे जा रहा है, मर रहा है, लेकिन तरक्की जारी है. समझ नही आता कि आप बधाई के पात्र हैं या बुराई के.

पी एम अंकल, आपको नही लगता कि न तो आपकी डिग्रियाँ किसी काम की हैं और न ही आपका अनुभव. वरना क्या वजह है कि आप महँगाई कम करने का एक छोटा सा फार्मूला भी ईजाद नही कर पाए? आपने उन वस्तुओं के दाम बढ़ा दिए जो जीवन के लिए आवश्यक हैं. दाम बढ़ाना ही था तो विलासिता की वस्तुओं का दाम बढ़ाते. परंतु आपने रीढ़ भी तोड़ी तो मध्यम और निम्न वर्ग के लोगों की जो अपने वाहन मे एक लीटर पेट्रोल भराने से पहले अपनी फटी हुई पर्स मे रखे पैसों को तीन-चार बार गिनते हैं. मेरे पापा के पास न तो पर्स है और न ही इतना पैसा. तो क्या मेरे पापा पेट्रोल वाली गाड़ी नही चला सकते? और जो गाड़ी हमने खरीदी है उसका क्या? अगर पेट्रोल के दाम अब कभी कम नही होंगे तो पी एम अंकल हमारी गाड़ी आप ही रख लो. जब आप पी एम नही रहोगे तो इसे मज़े से चला तो सकोगे.

Tuesday, November 1, 2011

किसकी बढ़ी आबादी और कौन हुआ बर्बाद



चलिए मानव आबादी ने सात अरब का आँकड़ा भी छू लिया. परंतु भारत जैसे  देश मे आबादी का बढ़ना कोई चमत्कार तो है नही. जिस देश मे जन्म-मृत्यु, आत्मा-परमात्मा जैसे विषयों पर लोग गली-मोहल्ले-चौक-चौबारों मे बैठकर गंभीर चर्चाएँ करते हैं, वहाँ आबादी जैसे साधारण विषय की क्या बिसात? यह सवा अरब की आबादी वाला देश है. यहाँ अब भी अस्सी फीसदी लोग पत्नी को बच्चा पैदा करने की मशीन समझते हैं और बच्चों को भगवान की देन. भई वोट दे दिया, सरकार बना दी, अब नेता दिल्ली मे बैठकर फोड़ें अपना माथा आबादी के बारे मे सोच सोच कर. क्यो रे लालू, सही कहा ना?

दरअसल, लालू जैसे लोग बढ़ी हुई आबादी को 'भरे-पुरे' परिवार की संज्ञा देते हैं. ग़रीब जन लालुओं को मानक मानते हैं. वो कहते हैं – “अरे जब ललुआ नौ-नौ बच्चे पैदा कर सकता है, तो ग़रीब आदमी तीन-चार नही कर सकता का?”

पढ़ा-लिखा वर्ग ग़रीबों मे जागरूकता लाने से पहले ही हार मान लेता है. आधी ज़िंदगी किताबों मे सर खपाए हुए लोग कहते हैं - "अरे इन्हें क्या सिख़ाओगे, ये तो निपट गँवार हैं. भैया, इनको सरकार नही समझा सकी, हम क्या चीज़ हैं? और फिर इन्होने तो आबादी बढ़ाने का कापीराइट किया हुआ है. बढ़ाने दो सालों को आबादी, और ये कर ही क्या सकते हैं. ये सौ रुपये की दैनिक मज़दूरी मे साठ की तो दारू गटक जाते हैं और चालीस की परिवार सहित खाते हैं. छत्तिसगढ़ जैसे प्रदेश मे तो ग़रीब पूरे सौ की दारू धकेल लेता है, क्योंकि खाना खिलाने का ठेका रमन सिंह की सरकार ने लिया हुआ है. ऐसी स्थिति मे इनके पास काम ही क्या बचता है - सिवाय परिवार बढ़ाने का. इनपर हम क्यों अपना समय खराब करें. हमारे पास बहुत काम है. अभी और कई किताबें चाटनी है. फिर अपनी खुद की किताब लिखेंगे - इन्हीं भिखमंगों पर."

रह गई सरकार. एक सरकार देश चला रही है और कई प्रदेश. परंतु कोई भी सरकार आबादी पर लगाम कसने की ज़िम्मेदारी नही लेना चाहती. कांग्रेस तो कतई नही. सत्तर के दशक के उत्तरार्ध मे संजय गाँधी ने दूध जलाया था, कांग्रेस अभी तक छाछ फूँक रही है. आगे भी फूंकेगी. अन्य राजनैतिक दल कांग्रेस से उम्र मे आधी हैं, इसलिए उसके ही अनुभवों को मापदंड मानती हैं.   

तो क्या यूँ ही बच्चे पैदा होते रहेंगे और सड़कों, रेलवे स्टेशनों व अनाथ आश्रमों मे अपना बचपन खोते रहेंगे? ऐसा होना तो नही चाहिए. केंद्र और प्रदेश सरकारों के पास योजनाएँ हैं. वृहद योजनाएँ  - जिन्हें सफलतापूर्वक लागू करने पर संपूर्ण सामाजिक ढाँचे मे परिवर्तन लाया जा सकता है. साक्षरता और विकास जागरूकता के पहिए बन तिरस्कृत वर्ग मे क्रांति ला सकते हैं. ज़रूरत है केवल सार्थक पहल की.  

लेकिन मंत्री और संत्री योजनाओं से ज़्यादा आबंटित राशियों मे दिलचस्पी लेते हैं. इन्हें अपने घर की आबादी की अधिक चिंता है,  देश जाए भाड़ मे.  ये जनता के कर से अपना घर चला रहे हैं और सरकारी ख़ज़ाना लूटकर अपना विदेशी बॅंक बॅलेन्स बढ़ा रहे हैं. ये अपने बच्चों की पढ़ाई मे लाखों फूँक देते हैं और सरकारी स्कूलों मे पढ़ने वाले बच्चों के विकास मे खर्च होने वाले करोड़ों लूट लेते हैं.

अगर ये अपने इरादों मे थोड़ा चूक जाएँ तो निम्न वर्ग की पूरी की पूरी एक पीढ़ी ज्ञान पी जाएगी और फिर बच्चों को जानवरों जैसा जीवन देने के लिए इस दुनिया मे लाने के बजाए अपनी आर्थिक परिस्थिति को ध्यान रखते हुए ही अपना परिवारिक दायरा बढ़ाएगी.


Tuesday, August 9, 2011

ये ज़माना कुछ और है..



किसी वक्त
मोहब्बत
एक खूबसूरत खता थी
अब ये खता, खता ना रही
पर वो ज़माना कुछ और था
ये ज़माना कुछ और है

मोहब्बत के परवाने
इबादत की शमा जलाया करते थे
तब ज़ुल्फो के बादल थे
ये घटाओं का दौर है

हुस्न के दीदार को
आँखें तरस जाया करतीं थीं
तब चंद मुलाकात ही मुनासिब थे
यह मुलाक़ातों का दौर है


ताउम्र साथ न बँधने पर भी
मोहब्बत कम ना होती थी
कई रात आँखों मे कटते थे
इधर, ना मैं सोता था
ना उधर वो सोती थी
पर वो वादा निभाने का दौर था
ये वादाखिलाफी का दौर है

जिस्मानी नही, रूहानी वह
पाक मोहब्बत होती थी
तब दिलवालों की बस्ती थी
ये दिलफरेबों का ठौर है


Monday, August 8, 2011

वासना


तृप्ति की कोई सीमा नही
चाहत अहं के अश्व हैं
तुम जगत के द्रव्य से
बुझा सकोगे प्यास ना
प्रतिपल तुम्हारे स्मृति-पटल पर
मचलती रहेगी वासना

मथ विचारों के सागर को
गर पा सको अमृत-कलश
रिक्त ऊर को तुम यदि
भर सको उल्लास से
यत्न है, असंभव नही
निश्च्छल करो उपासना
प्रीति की सरिता मे केवल
तिरोहित कर दो वासना

गूढ़ता की है प्रतिति
किंतु है यह तो सरल
प्रतिक्षण बोध आनंद का हो
और खिले चेतन-कमल
प्राणों मे उर्जा बहाना
है इंद्रियों को साधना
सृष्टि को पा जाओगे
भस्मिभूत हो जाएगी वासना

हर श्वांस लय को पा सके
हर स्वर मे मधुरता छा सके
हर भाव, हर मुद्रा मे तुम्हारी
फिर नृत्य का लोच समा सके
चित्त भी निर्मल रहे
ऐसी करो आराधना
धन्य-भाव हो 'समस्त' के प्रति जब
स्वतः विलुप्त हो जाएगी वासना

  

Friday, August 5, 2011

माँ, मैं नेता बन गया, कल मंत्री बनूंगा और परसों भगवान..



माँ मैं फिर पास हो गया. पूरे यूनिवर्सिटी में अव्वल आया हूँ - पीछे से. तुम्हें तो पता ही है कि नेताओं वाले गुण मुझमें शुरू से रहे हैं. मैने हमेशा से ही मुश्किल हालातों मे लोगों को आगे किया है और अनुकूल परिणामों पर अपनी मेहनत की मुहर लगाने मे तत्परता दिखाई है. यह सिलसिला काफ़ी लंबे समय तक चला और कब मैं बड़ा हो गया पता ही नही चला. देखो ना, अभी कुछ दिनों पहले ही तो स्कूल के हाफ़ पैंट से छुटकारा मिला था और अब कालेज की आज़ादी भी छिन गई. ज़िम्मेदारी का अहसास होने लगा है. मैने निश्चय किया है कि अब खाली नही बैठूँगा , कुछ काम करके रहूँगा. इसलिए मैने नेतागिरी करने की ठान ली है.

दरअसल मां, मेरी किस्मत मे नेता बनना ही लिखा था. मैं कुछ और कर भी नही पाता. इधर-उधर दर-दर की ठोकरें खाने से तो अच्छा है कि खुद लोगों को अपनी ठोकरों मे रखो. फिर मैने यह भी सोचा कि परिवार पर बोझ बनने से अच्छा देश पर ही बोझ बन जाता हूँ. परिवार पर बोझ बनने से घर की आर्थिक स्थिति और चरमरा जाती परंतु देश, अरे माँ देश की कौन फ़िक्र करता है जो मैं करूँ.

माँ, नेतागिरी मे नाम है, पैसा है. हाँ, इज़्ज़त भले नही है. पर जब मैने कभी किसी का आदर किया नही तो दूसरों से ऐसी उम्मीद क्यों करूँ? अरे, कभी कोई नेता इज़्ज़तदार होता है क्या? हाँ, वज़नदार ज़रूर होता है. अब मनमोहन सिंह को ही देख लो. पहले वे इज़्ज़तदार आर्थिक विशेषज्ञ थे और अब वज़नदार प्रधानमंत्री. फिर मैं क्या किसी से कम हूँ.

यही तो मज़ा है इस नेतागिरी के खेल मे. लोग समझते ही नही. बस भ्रष्टाचार मिटाने को बात करते हैं. विदेशों मे रखे काले धन को वापस लाने की बात करते हैं. कहते हैं, भारत कभी सोने की चिड़िया थी. अरे, थी से क्या मतलब, है.

ये वो देश है जहाँ कई मंदिरों मे करोड़ों के चढ़ावे चढ़ते हैं, कुछ मे खुदाई करने से अरबों के ख़ज़ाने मिले. यहाँ  रोज़ जो काले धन कमा रहे हैं उन्हें नज़रअंदाज कर दिया जाता है. क्या मंत्री, क्या अफ़सर, क्या व्यापारी और क्या चपरासी. भरे पड़े हैं लोगों के घरों मे पैसे. अब देखो ना, खेल-खेल मे सुरेश कलमाड़ी ने करोड़ों बना लिए और ए राजा ने हज़ारों करोड़.

अगर हम पूरे देश के नेताओं की गाढ़ी कमाई जोड़ेंगे तो पता चलेगा कि इतने मे तो भारत हीरे की चिड़िया बन सकती है. फिर बाकियों के काले धन की बारी आएगी. कुल मिलाकर, भारत प्लॅटिनम की चिड़िया बनने का माद्दा रखती है. और लोग हैं कि सोने पर अटके पड़े हैं.

तुम्हें पता है, एक अन्ना नाम का आदमी आजकल लोकपाल लोकपाल चिल्ला रहा है. बेचारा. देश सुधारना चाहता है. यह जानते हुए भी कि ऐसी सुधार की कामना करने वाले अंततः स्वर्ग सिधार जाते हैं और छोड़ जाते हैं नेताओं के चेहरे पर एक कुटिल विजयी मुस्कान. परंतु ये साहब हैं कि पिले पड़े हैं नेताओं को सुधारवाद का टानिक पिलाने के लिए. माँ, नेता पीते नही, गटक जाते हैं और डकार भी नही मारते. लालू से पूछो उसने चारा कैसे पचाया? वो हँसेगा और कहेगा मॅनेज्मेंट गुरु बनने के लिए पाचन शक्ति बढ़ानी पड़ी. आख़िर नेतागिरी क्या है - सब चीज़ों को अच्छी तरह से मॅनेज करने की कला. और इसमे तो मैं शुरू से माहिर हूँ माँ.

दरअसल, नेता कभी हारता नही. उसकी तो हार मे भी जीत है. नेता सरकार मे हो या विपक्ष मे, उसकी जेबें हमेशा भरी  रहती हैं. चेले-चपाटी हमेशा चिपके रहते हैं. अरे, इसलिए तो लोग नेता को राजनेता करते हैं. मैने, बहुत सोच-समझकर इस क्षेत्र मे पाँव रखे हैं माँ, तुम बस देखती जाओ.

तुम्हें पता है, नेता कभी मजबूर नही होता, डरता नही और शर्म उसके पास फटकना तो दूर बल्कि खुद शर्मा जाती है. तुम्हें याद है ना हमने कैसी जिंदगी देखी है. मैने पिताजी को हमेशा मजबूर और डरे हुए ही देखा है माँ. घर के बाहर कदम रखते ही डर उनके मन मे घर कर जाती थी. चेहरे पर चिंता की लकीरें, सदैव जुड़े हुए हाथ और पैरों पर टूटे हुए चप्पलों ने उनके जीवन को एक आर्ट फिल्म की स्टोरी मे तब्दील कर दिया था. दीदी भी हमेशा डरी डरी रही हैं. घर मे पिताजी का डर और बाहर दुनिया का. शादी के बाद भी उनका डर ख़त्म नही हुआ बल्कि अब वे अपने पति और बच्चों से डरती हैं.

और तुमने भी क्या कम परेशानियाँ झेली हैं माँ? हमारे कपड़ों का शौक तुम्हारे द्वारा सिले हुए वस्त्रों से ही पूरा होता था. तुम्हारे पास साड़ीयों का कलेक्शन कभी दो से अधिक नही हुआ. तुमने कई दिन केवल पानी पीकर ही संतोष कर लिया ताकि हमारा पेट भर सके. बस बहुत हो चुका मर मर के जीना. अब ये जिंदगी उधार मे नही नगद मे चलेगी माँ.

तुम बस देखती जाओ मैं कैसे सफलता की सीढ़ियाँ चढ़ता जाता हूँ. बहुत जल्द मैं मंत्री बन जाऊँगा. फिर मेरी प्रजाति से उपर इस विश्व मे केवल भगवान ही बचेंगे. अगर मैने आगे बढ़ने की रफ़्तार धीमी नही की तो कोई आश्चर्य नही कि मैं भगवान भी बन सकता हूँ. फिर तुम्हें पूजा करने के लिए किसी मंदिर की ज़रूरत नही पड़ेगी माँ, मैं जो रहूँगा - जीता-जागता भगवान!!!


Thursday, July 14, 2011

आतंक और भय


जब कहीं कोई दर्दनाक घटना घटती है तो पहले हम चौंकते हैं फिर संवेदना प्रकट करते हैं. भावनाएँ उमड़ आए तो रो लेते हैं. परंतु आँसुओं के सूखने मे वक्त लगता हैं, घटनाओं के पुनः पुनः घटने मे नही. क्या करें? किसे कहें? सब तरफ केवल बातें हैं. बड़ी बड़ी बातें. कोई आतंकी हमला करता है, कोई नक्सली हमला करता है. हैवानियत के विभिन्न रूप हैं ये सब.
अब ये सब बंद होना चाहिए. पर कैसे? पता नही. पता होता तो लिखने की क्या ज़रूरत पड़ती, कुछ कर ही डालते. सुख ज़रूरी है, समृद्धि ज़रूरी है, पर इन्हें प्राप्त करने के लिए किसी को मारने की क्या ज़रूरत है
अरे बर्बर लोगों, बहुत कुछ है इस संसार मे खून ख़राबे के सिवा, ज़रा नज़रिया तो बदलो.
अरे कायरों, चेहरा तो दिखाओ. बताओ तो सही कि क्या चाहते हो. और हिम्मत है, तो आओ, कर लो दो दो हाथ, हथियार को दरकिनार करो, बम का क्या ख़ौफ़ दिखाते हो, हाथ-पैर का दम दिखाओ.
मूर्खों, अगर तुम हमें आज मार दोगे तो कल तुम्हें कोई और मार देगा. अरे जब तुम ही नही रहोगे तो ये मारकाट क्यों? सोचो रे शैतानों, सोचो.
मैं जानता हूँ कोई सुनने वाला नही. मगर मैं प्रयास जारी रखूँगा.


हे फेसबुक प्रबुद्धजनों, १३ जुलाई, २०११ के आतंकी हमलों के बाद बंबई फिर आपकी-हमारी चर्चा का विषय बन गया है. बंबई से सभी देशवासियों का रिश्ता है. इसी शहर मे २६ नवंबर २००८ को आतंकी हमला हुआ था. उस वक्त मन मे कुछ ऐसे भाव उमड़े की उन्हें मैने शब्दों मे पिरो लिया. ये भाव पहले भी उमड़ते थे, जब नक्सली छत्तीसगढ़ मे मौत का तांडव करते थे अथवा देश के किसी हिस्से मे कोई आतंकी संगठन अशांति फैलता था. मन मे भाव तब भी उमड़ते हैं जब कहीं हत्या या बलात्कार की घटनाएँ प्रकाश मे आतीं हैं. अरे मन मे भाव तो तब भी उमड़ आता है जब कोई गाड़ी वाला किसी श्वान (कुत्ते) को रौंद कर निकल जाता है. पर अब लगता है कि इन भावों की परतें धीरे धीरे कम होती जा रहीं हैं. शायद किसी दिन भाव ख़त्म हो जाएँगे, और रह जाएगा केवल एक पत्थर दिल इंसान.

मैं अपनी पूर्व मे संग्रहित भावनात्मक शब्दों को पुनः आपके समक्ष रखता हूँ -


कही गहमाया हुआ
सा वातावरण
कही झुंझलाया हुआ
सा कुंठित मन
ऐसे में, कैसे बेफ़िक्र
रहे कोई
जब दाँव लगा हो
हर जीवन

कैसा आतंक
है छाने लगा
जो हवा का रुख़
बहकाने लगा
अब सांसों पर भी
अधिकार यहाँ
कोई इंसान अपना
जताने लगा

उठती लपटें
दरिंदगी की
भस्म होती
पल-पल मानवता
यहाँ ईच्छाओं
आशाओं का
मुश्किल है बुनना
कोई स्वपन

ऐसे में, कैसे बेफ़िक्र
रहे कोई
जब दाँव लगा हो
हर जीवन

अब वाद्यों के सुर
छिन्न हुए
सुमधुर आवाज़ें
क्रन्दित हुई
अब कलमों के स्याह
लाल हुए
कृतियों से विलग हुआ
स्पंदन

अब ना रहा वो
घर जिसपर
इठलाते थे
तुम हरदम
अब ना रहा वो
बाग जिसे
कहते थे तुम
सुंदर मधुबन

ऐसे में, कैसे बेफ़िक्र
रहे कोई
जब दाँव लगा हो
हर जीवन

अब ना रहे वो लोग
जिन्हे तुम
बतलाते थे
अपना गम
अब ना रहा वो
शहर जहाँ
लहराता था
कभी चमन

अब तो केवल
जंगल की ही
भाषा बोली
जाती है
अब तो हर मौसम
मे खून की
होली खेली
जाती है

ऐसे में, कैसे बेफ़िक्र
रहे कोई
जब दाँव लगा हो
हर जीवन

Sunday, July 10, 2011

बेचारा पत्रकार


(मैने इस लेख मे दैनिक बोलचाल की भाषा का प्रयोग किया है जिससे इसकी जीवंतता का एहसास हो सके. मैने कई मसलों पर कटाक्ष भी किया है परंतु यह किसी व्यक्ति विशेष पर कतई नही है. फिर भी यदि किसी प्रबुद्धजन को यह नागवार गुज़रे तो मैं पहले से ही खेद प्रकट करता हूँ.)

कहते हैं प्रेस प्रजातंत्र का चौथा स्तंभ होता है. अरे काहे का चौथा स्तंभ? अगर आप पत्रकारों से पूछें तो पता चलेगा कि उनको खुद को पता नही कि उनके पेशे को लोग इतना वज़नदार क्यों मानते हैं.
वो कहेंगे – यार एक तो जेब मे फूटी कौड़ी नही रहती, उधार मे जीवन कट रहा है, और लोग हैं कि पिले पड़े हैं चौथा स्तंभ बनाने के लिए. अरे नही बनना है भैया कोई स्तंभ-विस्तंभ. घर तो अपने दम पर संभाले नही संभलाता. तनख़्वाह इतनी होती है जितनी धन्ना सेठ सप्ताह मे पान गुटके चगलने मे फूँक देते हैं. मजबूरन बीबी से अरज करनी पड़ती है कि - हे गृहलक्ष्मी, अपनी कृपा बढ़ाओ और भोजन-झाड़ू-पोछा-बर्तन-कपड़ा करने के साथ साथ ट्यूशन इत्यादि करके हाथ बटाओ. परिवारवालों से ताना अलग सुनना पड़ता है – अरे कुछ कमाई धमाई करोगे या बस यूँ ही लफ्फाजी करते रहोगे. बड़े आए नेता, मंत्री और अफसरों के साथ उठने बैठने वाले. कभी ज़रूरत मे कोई काम आया भी  है भला? घोड़े जैसे दिखने लगे हो, उम्र है कि ताड़ जैसे तड़ातड़ बढ़ रही है, पर समझदारी नामक चीज़ नही आई.
परंतु दिखावा नामक भी कोई चीज़ होती है. पत्रकार सोचता है भले ही घर वाले उसका महत्व नही जानते लेकिन बाहर तो वह अपना रुतबा बना ही लेगा, चाहे झूठा ही सही. और बनाएगा कैसे - भई, फलाँ अख़बार मे पत्रकार हूँ, आज शहर मे नाम है, इज़्ज़त है, पैसा नही है तो क्या हुआ, वो भी एक दिन आ जाएगा. मगर पैसे के बारे मे बात करते करते उसके चेहरे पर उभरी शिकन साफ दिखाई पड़ने लगती है. वह जानता है कि इसी पैसे की खातिर उसे कितना पापड़ बेलना पड़ता है.
दरअसल, पत्रकार रोज़मर्रा की ज़रूरतों को तो किसी न किसी तरह से पूरी कर लेता है, परंतु जब उसके हालात बेकाबू हो जाते हैं तो पूरी दुनिया उससे मुँह मोड़ लेती है. जिस संस्था के लिए वो दिन-रात एक कर देता है वो मदद के नाम पर हाथ खड़ा कर देती है. अपने अचानक पराए हो जाते हैं. बड़े बड़े लोग, जो कभी गर्मजोशी से मिला करते थे, कन्नी काटने लगते हैं.
 लाचार, हैरान, परेशान और हताश पत्रकार आख़िर करे तो करे क्या? किसके सामने अपना रोना रोए? अरे ये तो वही पत्रकार है जिसे समाज का आईना कहते हैं. क्या इस आईने को कोई सहेजने वाला नही है? शायद नही है. इस जगत मे जब किसी के आँसुओं का मोल नही है, तो पत्रकार क्या चीज़ है.  बहुत चस्का था न लिखने का? बड़ी बड़ी बातें, देश-विदेश और समाज के बारे मे अपने विचारों को शब्द मे पिरोने की ललक, कुछ भी काम न आया. सफल भी हुए तो चंद लोग, नाम भी कमाए तो इने गिने ही.
इनमें कई गधे तो घोड़ों की खाल पहनकर आगे बढ़ गए. इन्हें न भाषा का ज्ञान है न लेखन का. इन्हीं महानुभाओं के द्वारा पत्रकारिता दूषित हुई और इनकी वजह से ही इस पेशे को अन्य पेशों के समतुल्य बना दिया गया है, जैसे - दलाली, वेश्यावृत्ति और न जाने क्या क्या. वह रे भांडों! विचारों की इतनी दरिद्रता थी तो इस पेशे से जुड़े क्यों? कमाने के लिए और भी पेशे थे जिनमे तुम्हारी बुद्धि ज़्यादा तेज़ चलती.
इस पेशे मे ऐसे भी लोग हैं जो ग़लती से संपादक बन बैठते हैं. इन्हें हमेशा अपनी कुर्सी जाने का ख़तरा दिखाई देता रहता है. इसलिए कुर्सी बचाने के लिए इन्होने चाटुकरिता का रास्ता अपना लिया है. ये वो लोग हैं जो अपने कनिष्ठ पत्रकारों के विचारों से ईर्ष्या करते हैं, उनके लेखों को अपने नाम से छाप देते हैं और कभी कभी तो छापते भी नही. बड़ी विडंबना है. दूसरों के विचारों से डर कैसा? क्या यदि कोई प्रतिभाशाली है तो किसी और की प्रतिभा पर आँच आ सकती हैबड़ी फूहड़ सोच है. और होगी भी, क्योंकि ऐसे लोग ही फूहड़ हैं.
परंतु बाकी अनगिनत मेधावी पत्रकारों का क्या हश्र होगा? क्या वो गुमनामी के अंधेरों मे ही भटकते रहेंगे? उन्हें उभरने का मौका तो मिलना चाहिए. पर कौन देगा इन्हें मौका? सभी तो एक-दूसरे की टाँग काटने (खींचने) मे लगे हैं.
लेकिन ऐसा होता क्यों है? समाज मे इतना खोखलापन क्यों है? ये वरिष्ठ और कनिष्ठ क्या होता है? अरे कोई जानकार है, ज्ञानी है, तो है. फिर वह छोटा हो या बड़ा, वरिष्ठ हो या कनिष्ठ, किसी भी पद पर हो, क्या फ़र्क पड़ता है? बल्कि उसे तो प्रोत्साहन मिलना चाहिए. आश्चर्य है, जिनमें प्रतिभा कूट कूट कर भरी होती है उन्हें लोग दबाने मे लगे रहते हैं. स्वतंत्रता नामक चीज़ किसी पेशे मे नही है, ज़ाहिर है, फिर पत्रकारिता मे कैसे आएगी.
यही कारण है कि पत्रकारिता के नाम से जब जब कोई कार्यक्रम होता है, संगोष्टी होती है तो इस पेशे के बारे मे पत्रकारों को छोड़कर अन्य लोग सुझाव देते हैं, नैतिकता का पाठ पढ़ते हैं. ऐसे मंचों का सबसे बढ़िया उपयोग नेता एवम् मंत्री करते हैं. और क्यों न करें. आख़िर मौक़ापरस्त जो हैं. इसलिए, पत्रकारों को पहले समझाइश देने के बहाने जमकर लताड़ते हैं और फिर अंत मे उनकी तारीफ मे दो शब्द बोलकर खामोश हो जाते हैं. यह बात अलग है कि जब कोई उत्साही पत्रकार इन प्रभावशाली लोगों को बेनकाब करना चाहता है तो ये उसके संपादक और संस्था के मालिक का मुँह पैसों से ठूंस देते हैं. फिर खबर खबर नही रहती, कूड़ेदान की शोभा बन जाती है.
फिर ये पत्रकार लिखें क्या? अपनी इच्छा से लिखने का इन्हें कोई अधिकार नही होता. ये वो खबर ही बनाते हैं जो या तो इनके संपादक कहते हैं या फिर मार्केटिंग और सेल्स विभाग के लोग.
संस्था प्रमुख भी कहता है - देखो, विचारशील होने से कुछ नही होता, लिखने भर से काम नही चलेगा, मल्टीटास्किंग (कई काम एक साथ करना) का ज़माना है, तुम भी करो, खबर बनाओ, विज्ञापन लाओ. यदि पत्रकार पूछता है कि आप पगार तो सिर्फ़ लिखने का देते हैं तो फिर सेल्स और विज्ञापन का काम क्यों लेते हैं, तो संस्था प्रमुख कहता है कि ऐसे विभागों के लोगों को पालने का उसने ठेका लिया हुआ है. ऐसी बातें वह शब्दों से नही बल्कि अपनी कुटील मुस्कान से कह जाता है.
पत्रकारों को उनकी अपनी ही संस्था मे सिखाने वाले भी बहुत मिल जाते हैं. प्रायः हर विभाग से. बेइज़्ज़ती अलग करते हैं. कोई कहता है - लिखने मे क्या रखा है, कोई भी लिख लेगा, कोई बड़ा काम तो है नही, ये पत्रकार भी न, बस डीँगें हांकते रहते हैं.
कुछ संस्था प्रमुख जिन्हें लेखन अथवा पत्रकारिता से कोई सरोकार नही वो भी बड़े बड़े लेख लिखते हैं. बस फ़र्क ये होता है कि ऐसे लेखों मे केवल नाम उनका होता है और काम किसी और का. यह प्रचलन कई संस्थाओं के संपादकीय विभाग मे भी ज़ोरों पर है. कुछ वरिष्ठ पत्रकार, विचारों से दीवालिया होने के बावजूद, साप्ताहिक स्तंभ लिखने के लिए बाकायदा किसी न किसी कनिष्ठ  पत्रकार के लेखन पर अपने नाम का मुहर लगाने से बाज़ नही आते.
इसलिए पत्रकार दिखावा करता है. वो कहता है मेरे पास सब कुछ है, मैं खुश हूँ. परंतु सच कुछ और होता है. उसके पास केवल  विचार होते हैं, ज्ञान होता है और होती है ग़रीबी, विवशता और आस कि कभी तो दिन फिरेंगे. सोचता है, जब हर श्वान के दिन फिर सकते हैं तो मैने क्या बिगाड़ा है. बेचारा पत्रकार - इसी आस मे लिखते लिखते स्वर्गीय पत्रकार हो जाता है. उसे सच्ची श्रद्धांजलि देने वाले भी कुछ लोग ही होते हैं -  उसकी ही तरह के चंद पत्रकार और उसके परिवार के लोग. अरे, जब पत्रकारों के खुद के स्तंभ चरमरकार टूट जाते हैं, उखड़ जाते हैं तो इनपर चौथे स्तंभ का बोझ डालने की क्या ज़रूरत है?

Thursday, June 30, 2011

ग़रीब की न सरकार सुनती है, न भगवान



ग़रीब आदमी वाकई ग़रीब होता है. उसे अपने आसपास होने वाले घटनाक्रमों के बारे मे बहुत कुछ पता होता है परंतु अंजान बने रहने मे ही वह अपनी समझदारी मानता है. सरकार भी ग़रीबों से यह अपेक्षा करती है कि वे जानें सब, मगर समझें कुछ न. यह ग़रीब जनता इस देश मे आधे से भी ज़्यादा के तादाद मे पाई जाती है. जब भी कोई मुसीबत आती है पहले इन्ही ग़रीबों का दरवाजा खटखटाती है. आख़िर इन लोगों ने दूसरों पर आई तकलीफ़ों को पहले झेलने का ठेका जो लिया हुआ है.
सरकार भी ग़रीबों से बलिदान मांगती है और कहती है कि तुम ज़्यादा खाओ मत, अनाज ख़त्म हो जाएगा. बेहतर है मर जाओ, कम से कम देश से बोझ तो कम होगा. विपक्षी राजनैतिक दल भी कहते है कि कब तक ग़रीबी का रोना रोते रहोगे, जल्दी मरो और हमें सरकार को घेरने का मुद्दा दो.
ग़रीब सरकार से कहते हैं कि हम भी इंसान हैं, हमें भी शिक्षा दो, स्वास्थ्य दो, कपड़ा दो, घर दो, अरे भई वह सारी सुविधाएँ दो जो बाकियों को मिलती हैं. इस पर सरकार कहती है इतनी जल्दी क्या है? अभी तो तुमने हमे गद्दी पर बैठाया है और अभी से उतारने की योजना बनाने लगे. थोड़ा धीरज रखो. पहले हमे अपना पेट भरने दो. हमारे दल के नेताओं की जेबें आने वाले कई वर्षों तक भरी रहे, ऐसी व्यवस्था करने दो. अपने संगठन को मजबूत करने के लिए पर्याप्त पैसों का जुगाड़ करने दो. हमारे कार्यकर्ता भी ग़रीब हैं, पहले उनकी सुध लेने दो. फिर शायद तुम्हारी बारी आएगी और तब तक चुनाव का समय भी आ जाएगा. उस वक्त तो तुम ग़रीबों की ही चाँदी होगी क्योंकि तुम्हारी पूछपरख और तीमारदारी मे हम कोई कोर-कसर बाकी नही रखेंगे. चिंता मत करो, बस चुनाव आ जाए, और हम तुम्हें मुँहमांगी सुविधाएँ देंगे. और तब तक सुविधाओं का लाभ कागजों मे लो.
सही भी है. वैसे भी क्या रखा है शिक्षा मे? यदि ग़रीब शिक्षा प्राप्त कर लेगा तो उसकी समझ बढ़ जाएगी और वो चुनाव मे अपने मताधिकार प्रयोग करने के समय अपनी बुद्धि पर बल डालना प्रारंभ कर देगा. अपनी आर्थिक स्थिति को सुधारने की बात करेगा. और यदि उसने अधिक मेहनत कर दी तो वह अमीर हो जाएगा. अरे भई, सभी अमीर हो जाएँगे तो ग़रीब कौन रहेगा और चुनाव कौन जिताएगा? अमीर आदमी तो वोट डालने से रहा. इस स्थिति मे ग़रीब ही तारणहार का काम करते हैं.
और यह क्या? ग़रीब स्वस्थ रहने की भी इच्छा ज़ाहिर करने लगे. क्या बात है! अरे, यदि तुम ग़रीब हो तो स्वस्थ कैसे रह सकते हो? तुम्हारे बीमार रहने से तो कितनों की दुकानें चलती हैं. फिर जब तुम परलोक सिधार जाते हो तो देश की आबादी मे कमी आती है. यहाँ तुम्हें कोई बचाने वाला नही है, सब तुम्हें जीते जी मारने के फिराक मे हैं. इसलिए, बीमार रहो और मरो. और हाँ, अगर तुमने थोड़ा धन अपने इलाज के लिए संभालकर रखा है तो उससे दो पल की खुशियाँ खरीद लो. अब तो बाज़ार मे खुशियों की दुकानें भी सजने लगी हैं. इलाज के लिए तुम्हे इंतज़ार करना होगा. यह कतार कुछ लंबी है. शायद एक दिन ऐसा भी आएगा जब ग़रीबों का इलाज संभव होगा.
रही बात घर, कपड़े और अन्य सुविधाओं की तो यदि यह सब ग़रीबों को प्राप्त हो जाए तो वे ग़रीब कैसे कहलाएँगे? फिर मनुष्यों  का वर्गीकरण कैसे होगा? फिर अमीर और ग़रीब मे फ़र्क क्या रह जाएगा? ऐसे कैसे चलेगा? भई कोई तो हो जिसपर धनी अपना रौब जमा सके. इसलिए सुविधाओं की माँग बेमानी है. अगर ग़रीब हो तो इसमे किसी अमीर का क्या कुसूर? तुम्हारा भाग्य ही खराब है. माँगना है तो अपने भगवान से माँगो जिसने तुम्हे ग़रीब बनाया. परंतु वो तो तुम्हारी कभी सुनता नही फिर बाकियों से इतनी अपेक्षा क्यों?
ग़रीब आदमी कहता है कि यार बहुत तकलीफ़ है - पेट्रोल की कीमतें आसमान छू रही हैं, खाने की वस्तुओं के दाम सोने-चाँदी की तरह उछल रहे हैं,  भ्रष्टाचार बढ़ रहा है, जीना दूभर हो गया है. इस पर सरकार कहती है पागलों तुमसे किसने कहा शौक पालने के लिए - ईंधनयुक्त वाहनों से तुम्हें कोई सरोकार नही होना चाहिए,  भोजन जब मिल जाए स्वयं को धन्य समझो. और भ्रष्टाचार तुम्हारा क्या बिगाड़ेगी, तुम तो ऐसे ही ग़रीब हो.
ये ग़रीब ग़रीब नही बल्कि शिकायतों का पुलिंदा हैं. इसलिए जब सरकार इनसे पल्ला झाड़ लेती है तो ये भगवान की ओर उन्मुख होते हैं. किंतु भगवान के घर भी इन्हें निराशा ही हाथ लगती है और ये पाँव पटकते हुए उपर आसमान की ओर देखते हुए कहते हैं कि यार कुछ कर नही सकता तो धरती पर क्यों भेजा, उठा ले!
ग़रीब जब घर की मरम्मत करना चाहता है तब बाढ़ उसके घर को ही बहा ले जाती है. ग़रीब की लड़की हमेशा शोषित होती है. जब उसके पास पहनने को कपड़े नही होते और वह चिथड़ों मे लिपटी होती है तो कुछ शुभचिंतक बनने का दिखावा करते हुए उसे अपनी हवस का शिकार बना लेते हैं. और जब वह अच्छे कपड़े पहनने लगती है तो उसके चाल-चलन पर संदेह किया जाता है. वार री दुनिया - चित भी मेरी और पट भी मेरी. अरे ग़रीब की लड़की को तो छोड़ दो, वह भी तो बेचारी नारी है. परंतु नारी का सम्मान करने की क्या आवश्यकता है, समाज का नियम है केवल दिखावा करो,  हृदय से कुछ न करो.
ग़रीब का लड़का तो और ग़रीब होता है. उसे कहा जाता है ज़्यादा सपने देखना अच्छी बात नही है. ग़रीब हो, ग़रीब ही रहो. थोड़ी पढ़ाई कर सकते हो पर अधिक नही. ये क्या क्रिकेट, हॉकी जैसे खेलों के प्रति आकर्षित होते हो, खेलना है तो गिल्ली-डंडा खेलो. इसलिए शायद जब ग़रीब बच्चे कठिन परस्थितियों का सामना करते हुए कुछ बन जाते हैं तो अपने अतीत के झरोखों को बंद कर देते हैं. क्योंकि उन्हें अपना अतीत कभी यादगार नही लगता बल्कि हमेशा भयावह प्रतीत होता है. कुछ सफलता की सीढ़ियाँ चढ़ने के बाद समाज के प्रति अपने आक्रोश को दबा नही पाते क्योंकि यही समाज उनकी तरक्की के मार्गों को बंद करने मे व्यस्त रहता है. इसलिए तिरस्कार कुछ ग़रीब बच्चों को अपराध जगत की ओर धकेलता है.
अब जिस ग़रीब का हर पग काँटों पर ही पड़ता हो तो वह तो दर्द से चीखेगा ही न? और जब उसकी चीख को भगवान भी नही सुनता तो वह बदहवास हो जाता है. उसे समझ नही आता की वह क्या करे, जीवित रहे अथवा मृत्य का वरण कर ले. परंतु इसी कशमकश मे उसके दिन बीतते जाते हैं और एक दिन वह वाकई साँस लेना छोड़ देता है.

Friday, June 24, 2011

वर्षा ऋतु मे संगीत का महत्व



वर्षा ऋतु की प्रथम बूँदों का बहुत महत्व है क्योंकि जब सूर्य की उतप्त किरणों से झुलसी हुई पृथ्वी का ये आलिंगन करतीं हैं तब आनंद से अभिभूत प्रकृति मधुर संगीत की रचना करती है. रचनाओं के इस संसार मे चलचित्रों (फिल्मों) का अपना अलग ही स्थान है. दरअसल चलचित्रों मे भावनाओं को अभिव्यक्त करने के दर्शनीय माध्यम अपनाए जाते हैं. वर्षा से संबद्ध कुछ अभिव्यक्तियों को तो चलचित्रों ने अविस्मरणीय बना दिया है. ऐसी ही एक अभिव्यक्ति गीत के माध्यम से 'परख' नामक चलचित्र मे संगीतकार सलिल चौधरी चित्रित की है. इस कर्णप्रिय गीत मे एक अनोखी स्फूर्ति है. मैं आप सभी प्रबुद्धजनों को आग्रह करता हूँ कि इस रचना से स्वयम् को कुछ क्षणों के लिए जोड़ कर अनुभूत करें.

ओ सजना, बरखा बहार आई

फ़िल्म - परख, गायिका - लता मंगेशकर, संगीत - सलिल चौधरी, गीत -शैलेन्द्र

(
ओ सजना, बरखा बहार आई
रस की फुहार लाई, अँखियों मे प्यार लाई ) -
ओ सजना
तुमको पुकारे मेरे मन का पपिहरा - २
मीठी मीठी अगनी में, जले मोरा जियरा
ओ सजना ...
(ऐसी रिमझिम में ओ साजन, प्यासे प्यासे मेरे नयन
तेरे ही, ख्वाब में, खो गए ) -
सांवली सलोनी घटा, जब जब छाई -
अँखियों में रैना गई, निन्दिया न आई
ओ सजना ...




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