तृप्ति की कोई सीमा नही
चाहत अहं के अश्व हैं
तुम जगत के द्रव्य से
बुझा सकोगे प्यास ना
प्रतिपल तुम्हारे स्मृति-पटल पर
मचलती रहेगी वासना
मथ विचारों के सागर को
गर पा सको अमृत-कलश
रिक्त ऊर को तुम यदि
भर सको उल्लास से
यत्न है, असंभव नही
निश्च्छल करो उपासना
प्रीति की सरिता मे केवल
तिरोहित कर दो वासना
गूढ़ता की है प्रतिति
किंतु है यह तो सरल
प्रतिक्षण बोध आनंद का हो
और खिले चेतन-कमल
प्राणों मे उर्जा बहाना
है इंद्रियों को साधना
सृष्टि को पा जाओगे
भस्मिभूत हो जाएगी वासना
हर श्वांस लय को पा सके
हर स्वर मे मधुरता छा सके
हर भाव, हर मुद्रा मे तुम्हारी
फिर नृत्य का लोच समा सके
चित्त भी निर्मल रहे
ऐसी करो आराधना
धन्य-भाव हो 'समस्त' के प्रति जब
स्वतः विलुप्त हो जाएगी वासना
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