Wednesday, September 26, 2012

विकास ज़रूरी है, जनता जाए भाड़ मे


(यह व्यंग्य मैने विश्व के सबसे काबिल अर्थशास्त्री और भारत के प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह पर लिखा है, उम्मीद है वे मेरी बातों का अवश्य बुरा मानेंगे..)


प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को अचानक विकास शब्द से लगाव हो गया है। आठ साल तक उनके मंत्रीगण देश की लुटिया डुबोते रहे परंतु वे खामोश रहे। बड़े बड़े घोटाले हुए लेकिन उनके चेहरे पर शिकन तक नही आई। जब जनता को लगने लगा क़ि - 'अरे ये तो काफ़ी सालों से कोमा मे हैं और शायद इसलिए मैडम पर्दे के पीछे से सरकार चला रही हैं', तभी वे अचानक बोल पड़े - देश का बंटाधर मैं स्वयं करूँगा। यह शुभ कार्य करने के लिए उन्होने विकास का नारा दिया।  

क्या मतलब? अरे भई, जीना, खाना, तेल, पानी, स्वास्थ्य, शिक्षा, सब महँगी कर दो और बोलो इससे देश का विकास होगा।  वैसे भी जनता ठहरी बेज़ुबान जानवर और विपक्षी दल ठहरे मौक़ापरस्त, तो विरोध का स्वरूप एक दिन के देश बंद से अधिक क्या होगा? पुनः: शांति छा जाएगी  और फिर करो नंगा नाच।

दरअसल मनमोहन सिंह संवेदनशील प्रधानमंत्री हैं। उसकी संवेदनशीलता अंतरराष्ट्रीय स्तर की है। इसलिए आतंकवाद, नक्सलवाद, महँगाई, किसानों की आत्महत्या, ग़रीबी जैसी समस्याओं से उनकी भावनाएँ आहत नही होतीं।  हाँ, यदि अमेरिका की टाइम पत्रिका अथवा वॉशिंग्टन पोस्ट अख़बार उन्हें कमजोर और उपलब्धि-विहीन प्रधानमंत्री करार देती हैं तो उन्हें अंतरराष्ट्रीय जगत मे अपनी कृत्रिम छवि खराब होने की चिंता सताने लगती है।  अजीब आदमी हैं - बुढ़ापा घर मे काटना है और शर्म उन बाहर वालों से आती है जिनसे रूबरू होने की संभावना मौत तक नही है।

करियर ढलान पर है, सोचा देशवासियों का भविष्य भी चौपट कर दिया जाए। इसलिए घुमा दी बड़ी बड़ी बातों की चक्करघिन्नी, विकास दर को नये क्षितिज पर पहुँचाने की ठान ली और डीजल एवम् गैस के दामों मे बढ़ोतरी कर दी। सेंसेक्स और निफ्टी उछलने लगे और आम जनता का दिल बैठ गया। अर्थशास्त्री महोदय मुस्कुराने लगे, कहने लगे ये तो अभी ट्रेलर है, पिक्चर तो अभी बाकी है मेरे दोस्त।

लोग सकपकाए हुए हैं, जाने ये आदमी और क्या क्या सितम ढाएगा, पूरे देश को तो इसने प्रयोगशाला बना दिया है, अब आगे क्या?  दरअसल आगे कुछ नही है, सिवाय तकलीफ़ के। मनमोहन सरकार ने अपने राज मे नया पहाड़ बनाया -  माउंट महँगाई जो माउंट एवरेस्ट की चोटी को पकड़ पकड़ कर ऐंठती रहती है।  जनता के लिए यह बात प्रतीकात्मक है - यदि वह भी लोकतंत्र मे स्वयं को सरकार से बड़ी समझेगी तो सरकार उसे मरोड़ कर रख देगी।

और विकास? वह तो होकर रहेगा, विकसित नेता होंगे और जनता कुपोषित। यह तो सदा का दस्तूर रहा है। गाँवों मे सड़क, पानी, बिजली पहुँचाना है - बिल्कुल पहुँचेगा। कब? पता नही। हर नागरिक को शिक्षित करना है - कर देंगे। कैसे? आँकड़ों मे।  कौन बेवकूफ़ दूर-दराज स्थानों मे यह जानने के लिए मरने जाएगा कि सरकार सच बोल रही है या झूठ। हर गाँव मे स्वास्थ्य केंद्र होना चाहिए, भले चिकित्सक हो या ना हो। मध्यान्ह भोजन कौन खा रहा है, पता नही, हाँ पकाने वाले स्कूल के बच्चे हैं। आम आदमी मरते दम तक बुनियादी सुविधाओं के लिए तरसते हैं, बड़े बड़े शापिंग मॉल को हतप्रभ चने फाँकते हुए निहारते हैं और कहते हैं - वाकई देश तरक्की कर रहा है।

मनमोहन सरकार ने दाल, चावल, गेहूँ, शक्कर, सब्जी को सोना बना दिया है, एक ग्राम ख़रीदो और थाली मे सजाकर बीस मिनट मन भरकर देखो, पेट अपने आप भर जाएगा।  लोग यदि शिकायत करते हैं तो सरकार कहती है - ग़लत बात, एक तो हम तुम भिखारियों का भविष्य सँवारने का प्रयोजन कर रहे हैं और तुम हो कि हमे ही आँखें तरेर रहे हो, चुप रहो और तमाशा देखो, एक दिन हम भारत को अमरीका बना देंगे। जनता आक्रोशित है, कहती है विकास गया तेल लेने, इस मूर्ख सरकार के मूर्खतापूर्ण निर्णयों से भारत अमरीका तो नही वरन अफ़्रीका ज़रूर बन जाएगा।  मनमोहन सिंह मुस्कुराते हैं, कहते हैं - अरे पागलों, अफ्रीका भी तो विदेश है, यदि दो कौड़ी का हिन्दी बोलने वाला भारत अँग्रेज़ी बोलने वाले अफ्रीकी राष्ट्र की तरह बन जाएगा तो क्या यह तरक्की नही है।

सत्य वचन मनमोहन सिंह जी। प्रयोग चलने दो - जनता बचे ना बचे, देश ज़रूर बच जाएगा। फिर बुला लेना विदेशियों को यहाँ बसाने के लिए। पूरब मे रखा क्या है, अब सूर्योदय पश्चिम से होगा, धर्म और तंत्र का ज्ञान पश्चिम से आएगा, भारत पुनः पुनः बसेगा, पर लोग कोई और होंगे, फिर यह वाकई विदेश बन जाएगा..  

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