Tuesday, May 10, 2011

आमंत्रण



मेरी कल्पना के
सागर से,
जीवन की इस
जलधारा मे,
आओ,
फिर तुम,
फिर बहो

जिन स्वपनों को
तुमने देखा,
गृह-संसार की
खींची रेखा,
न लज़ाओ,
फिर तुम,
फिर कहो

बहुत धरा है
हमने धीर,
समझ सका न
कोई पीर,
कह जाओ,
मौन अब,
फिर न रहो

देवों को अर्पित
पुष्पहार,
तुमने किया
बारंबार,
स्नेहयुक्त माला
हमको भी,
पहनाओ,
अब तुम न डरो

कितने पग
तुमने,
हैं चले,
कितने पग
मैं भी चला,
जीवन का
है अंतिम
यह पग,
बढ़ाओ,
अब तो संग चलो

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